*** ‘लोकवादी तुलसीदास’

रचनाकार की दृष्टि यदि उनकी रचनाओं में समाहित हो तो रचनाकार का व्यक्तित्व व उनकी विशेषताओं को उजागर करने के लिए रचना से परे कम ही भटकना पड़ता है.  तुलसीदास को 'लोकवादी' का विशेषण देने के लिए डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी पुस्तक 'लोकवादी तुलसीदास'  में उनकी रचनाओं को ही आधार बनाते हैं और यथेष्ट विवरण एवं उद्धरण से तुलसी की लोकवादिता को प्रस्तुत करते हैं. इसी क्रम में उन बिन्दुओं को भी बेहिचक रेखांकित करते हैं जहाँ तुलसी की लोकवादिता खंडित होती है. लेकिन इस खंडन के कारण पुस्तक का नाम त्रिपाठी जी नहीं बदलते. पुस्तक का नाम ध्येय-सापेक्ष होता है और इस पुस्तक के नाम से उनका ध्येय स्पष्ट हो जाता है.

तुलसीदास को विषय बनाना इतिहास और परंपरा में सप्रयोजन प्रवेश करना है. प्रयोजन वर्तमान से सम्बद्ध ही नहीं अतीत से विशेष लगाव का भी हो सकता है. इतिहास और परम्परा के प्रति विशेष लगाव का मतलब आँख मूंदकर गले लगाना नहीं बल्कि अपनी रचना-दृष्टि और उद्देश्य के अनुरूप परंपरा का साक्षात्कार करना है. 'लोकवादी तुलसीदास' इसी तरह का साक्षात्कार है. डॉ. त्रिपाठी ने इसे चार अध्यायों में विभक्त किया है. प्रथम अध्याय 'तुलसी के राम' में तुलसी के अधीष्ट 'राम के रामत्व' को अन्य रचनाओं के राम से पृथक करते हुए उसकी विशिष्टता को सामने लाते हैं. उन्होंने लिखा कि वाल्मीकि, भवभूति, तुलसी और निराला के 'रामों' में जो अंतर है उसका कारण इन महाकवियों के युगबोध का अंतर है. एक ही धरातल पर समानता दिखती है और वह है केवल राम का संघर्ष.  (पृ० २५)  तुलसीदास ने राम के जीवन की अविरल संघर्ष-परंपरा को स्वीकार कर उनके चरित्र को अपनी रचनाओं में पुनः स्थापित करने के स्थान पर अपने युग के नायक के रूप में चित्रित किया. यह नायक तुलसी के दर्शन और चिंतन में तो ब्रह्म है लेकिन उनकी कविता में लोकनायक है. राम के रामत्व के साथ नायक का नायकत्व भी पृथक हो जाता है. राम-नाम की महिमा गाते समय तुलसी निस्सम्बल, असहाय, अभागे, गुणहीन, गरीब, दीन, अकुलीन, पंगु, अंधे, भूखे आदि जन को याद करते हैं. इन्हीं दीन जनों के बंधु हैं तुलसी के लोकनायक. तुलसी भक्त-कवि हैं लेकिन उनके भक्ति और उनके राम में इस लोक की पूरी समाई है. डॉ. त्रिपाठी ने इन्हीं संदर्भो में राम को 'मानव  इतिहास के संघर्षशील व्यक्ति' का और सहायक बन्दर भालू को 'सर्वहारा का प्रतीक'  बना सकने की बात रखते हुए लिखा - "जो लोग राम कथा के इन प्रतीकों को नहीं समझते, वे सचमुच अधिकारी हैं तुलसी को सामंती व्यवस्था का पोषक और संकीर्णतावादी कहने को." (पृ०-२५)

तुलसीदास की लोकप्रियता केवल रचना के लिए ही नहीं बल्कि उनकी स्थापना सम्बन्धी विवादों के लिए भी है. ऐसे में तथाकथित शुद्र-विरोधी, नारी-निंदक, और वर्ण-व्यवस्था समर्थक कवि की रचना एवं रचनाधर्मिता का मूल्याङ्कन/पुनर्मूल्यांकन सहज या सरल नहीं रह जाता. त्रिपाठी जी स्वीकार करते हैं कि तुलसी असुविधाजनक कवि हैं, वे कई समकालीन प्रतिष्ठित कवियों और आलोचकों को भी परेशान करते हैं. इसीलिए तुलसीदास को 'लोकवादी' स्थापित करते हुए इन परेशानियों से जूझते भी हैं. विशेषकर नारी एवं वर्णव्यवस्था सम्बन्धी विषय पर लिखते हुए.

तुलसी के राम सीता का परित्याग नहीं करते, शुद्र तपस्वी का वध नहीं करते. निषाद के लिए 'रामसखा' विशेषण का प्रयोग करते हैं. तुलसी के राम वानर-भालुओं को भरत से भी अधिक प्यारे (भरतहूँ तें मोहि अधिक पियारे) कहते हैं. शबरी को  'भानिमी', 'करिबर गामिनी' कहकर संबोधित करते हैं. 'तुलसी के राम उन लोगों के प्रिय हैं जो साधनहीन हैं, जिन्हें बड़े-बड़े लोग छोटा या नीच समझते हैं, जिनकी वे उपेक्षा करते हैं. अहल्या, केवट, ग्रामीण नर-नारियों, कोल-किरात, शबरी, गीध, बन्दर-भालुओं से राम की आत्मीयता पर गौर करने से राम का दीनबंधु और पर-दु:ख-कातर रूप सामने आता हैं.' (पृ०-३४) वर्णव्यवस्था में दरार डाल रहे  भक्ति आन्दोलन के इन पक्षों को दरकिनार कर तुलसी के मूल्याङ्कन के साथ न्याय नहीं किया जा सकता. 'लोकवादी तुलसीदास' में विश्वनाथ त्रिपाठी इन पक्षों के आग्रह में तुलसी की वर्णव्यवस्था सम्बन्धी दुराग्रहों की आलोचना के औचित्य को अस्वीकार नहीं करते. वे लिखते हैं - 'तुलसी का वर्णव्यवस्था के प्रति जड़ मोह है और घोर पुनरुत्थानवाद है जो जप-ताप-व्रत करने और वरासन पर बैठने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को देता है. जिस विवेक के महत्व का गुणगान करते हुए तुलसी नहीं थकते वह ऐसे अवसरों पर वर्णाश्रम व्यवस्था की कट्टरता से ढँक जाता है. ऐसी पंक्तियों को लिखने के लिए तुलसी की सफाई देने की नहीं, उनकी और अधिक निंदा करने की ज़रुरत है.' (पृ०-७९) यह सही है कि 'रामचरितमानस' में वर्णाश्रम  व्यवस्था का समर्थन ही नहीं बल्कि नारी-निंदा, शूद्र-प्रतारणा के साथ कबीर, गोरख तथा सूफ़ियों की भी  भर्त्सना मिलती है. लेकिन 'मानस' के पहले के 'रामलला नहछू' तथा बाद के 'विनय-पत्रिका', 'गीतावली', 'कवितावली', 'पार्वती मंगल', 'जानकी मंगल' में ये सभी नजरिया बिलकुल नदारत है. ऐसे में प्रशंसा  और निंदा के भाववादी चलन से बेहतर है इसे द्वंद्वात्मक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना. तुलसी के जहाँ वर्णव्यवस्था का समर्थन है, वहीँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य 'भक्ति', 'विवेक' और 'सदाचार' भी. 'पूजिए विप्र सकल गुण हीना' और 'विप्र निरच्छर लोलुप कामी' जैसे द्वंद्व को त्रिपाठी जी 'द्वंद्वात्मक भाववाद' कहते हैं. उनके अनुसार - "इस द्वंद्वात्मकता का पूर्ण शमन उनके यहाँ राम और राम की भक्ति में होता है. लौकिक जीवन में और आचरण में इस द्वंद्वात्मकता को तुलसी विवेक से सुलझाने के पक्ष में हैं - जड़ चेतन गुन दोष मय, विस्व कीन्ह करतार | संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि विकार || हंस विवेक का प्रतीक है. (पृ० ८२) इसी 'विवेक' से त्रिपाठी जी पुस्तक के द्वितीय अध्याय 'तुलसी का देश' में तुलसी की नारी-निंदा सम्बन्धी समस्या को सुलझाने की चेष्टा करते हैं. यह स्वीकार करते हुए कि तुलसीदास जितनी नारी-निंदा किसी अन्य सगुण भक्त के यहाँ नहीं मिलेगी. उन्होंने लिखा कि तुलसी ने 'नारी जीवन का गहरा पर्यवेक्षण किया था, परिचय प्राप्त किया था. इसी परिचय ने संभवतः उन्हें नारियों का निंदक और नारियों के प्रति अपार सहानुभूति रखने वाला बनाया था. अन्य वस्तुओं और व्यक्तियों की तरह नारियाँ भी अच्छी और बुरी दोनों होती हैं. नारी को जितने विविध रूपों में तुलसी ने चित्रित किया है और नारी चित्रण करते समय जितनी सहानुभूति तुलसी ने नारी पात्रों को दी है, उतनी मध्यकाल के किसी अन्य कवि ने नहीं दी.' (पृ० ५९) तुलसी जैसे नारी-निंदक नारी पराधीनता को पहचानते थे. "कत विधि सृजी नारि जग माहीं | पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं |" जैसी अर्धाली तुलसी को नारी-निंदक घोषित करने वाले उद्धृत नहीं करते. पुरुष के लिए 'एकनारीव्रत' की व्यवस्था देने वाले कवि तुलसी के यहाँ नारी केवल रमणी नहीं है, वह कन्या, पत्नी, और माँ तीनों है. इनके सौंदर्य का चित्रण भी उच्छृंखल नहीं बल्कि पूर्ण मर्यादित है. सीता का चरित्र तो रीतिकालीन नारी-रूप को खंडित ही नहीं करता बल्कि एक आदर्श पातिव्रत्य धर्म का विकल्प भी देता है. दूसरी तरफ संकीर्णहृदयता, परद्वेष, त्रियाहठ आदि स्वभाव की खल नारी-पात्रों में प्रमुख शूर्पणखा, मंथरा और कैकयी है. त्रिपाठी जी के शब्दों में 'शूर्पणखा तो बहुत कुछ मोहिनी के रूप पर विमुग्ध नारद का नारी संस्करण है.' और कैकयी  'रूप-गर्विता', 'बिगड़ी हुई युवती रानी' है. 'कोउ नृप होहि हमहिं का हानी' जैसे उक्ति के लिए मशहूर मंथरा को त्रिपाठी जी ने 'ठेठ शेक्सपियरीय पात्र' कहा जो अच्छे से अच्छे व्यक्ति के चित्त को द्वेष और शंका के विष से भर देने में अद्वितीय है. वह कैलियस और इयागो से कम कुशल नहीं है. (पृ० ६८) अन्य उद्धरणों और विवरणों के साथ अंततः त्रिपाठी जी ने यह समाधान रखा कि "तुलसी को एक झटके में नारी-निंदक कह देने से काम नहीं चलेगा, उन्होंने नारी-निंदा की है, खुलकर की है. इस विषय में तुलसी को सफाई देने की कोशिश भी उचित नहीं है. लेकिन तुलसी ने सिर्फ नारी-निंदा ही नहीं की है, उन्होंने अपने युग के नारी जीवन का अपूर्व एक मार्मिक चित्रण भी किया है. यह चित्रण उनकी नारी-निंदा से कहीं अधिक वास्तविक, सजीव और महत्वपूर्ण है. मध्यकाल के किसी अन्य हिंदी कवि ने नारी की पीड़ा उसकी पराधीनता को, उसकी विविध-रूपता को भी इतनी अच्छी तरह नहीं चित्रित किया है." (पृ० ७२)

पुस्तक के द्वितीय अध्याय में डॉ. त्रिपाठी ने तुलसीदास की प्रकृति और जनसमाज सम्बन्धी समझ की व्यापकता और गहराई को विस्तार से प्रस्तुत किया. लिखते हैं - 'तुलसी के यहाँ प्रकृति का सौंदर्य राम और रामराज्य जैसा ही सुखद और उन्हीं का अंश बनकर आता है. वन, उपवन, खग-मृग, नदी, जल, वर्षा, भूमि से तुलसी की आत्मीयता है.' (पृ० ४४) यही आत्मीयता वन्य-जनों एवं ग्राम-जनों के चित्रण में भी देखी जा सकती है. इसमें व्यक्तिगत अनुराग है और रचनात्मक सरोकार भी. तुलसी के रचना-कौशल सम्बन्धी इस सन्दर्भ का प्रयोग हिंदी आलोचना में बहुत कम देखने को मिलती है. 'लोकवादी तुलसीदास' इस विशेष पक्ष को सारगर्भित प्रस्तुति देती है. तुलसीदास की रचना में साधारण जन ग्रीक त्रासदियों के कोरस के समान बीच-बीच में आते हैं और वे घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया-चेष्टाएँ प्रकट कर जाते हैं. 'मानस' के सामान्य जन भीड़ मात्र नहीं हैं, वे प्रायः विवेकवान और सहृदय हैं. तुलसी ने इन सामान्य जनों की प्रतिक्रिया कथा में अनेक स्थलों पर प्रकट करके उन्हें 'मानस' की संरचना का अनुपेक्षणीय तत्व बना दिया है. इससे उनकी वह लोकवादी दृष्टि भी प्रकट होती है जो किसी व्यक्ति के चरित्र और किसी घटना का मूल्याङ्कन लोक और समाज की दृष्टि से करती है. (पृ०५४)

देश-प्रेम की ही भूमि पर स्थित तुलसी की कविता देश-काल के यथार्थ से उपजी है. इसीलिए उसमें सौन्दर्य है और विडम्बना भी, आनंद है और पीड़ा भी. अराध्य के प्रति आस्था का आनंद निजी और परम्पराजन्य है तो दरिद्रता, अकाल और भुखमरी से पीड़ित देशवासियों की पीड़ा तुलसी की ही अनुभवजन्य पीड़ा है. भुक्तभोगी यथार्थ ख़ासकर जीवन-पीड़ा तुलसी की रचना में अपनी सामान्यता के साथ विशेष हो जाता है, व्यापकता के साथ गहन भी. इसीलिए तुलसी इससे मुक्ति का स्वप्न 'रामराज्य' के रूप में देखते हैं और इसीलिए राम 'गरीबनेवाज' हैं 'दीनबंधु' हैं. 'लोकवादी तुलसीदास' के तृतीय अध्याय 'कलियुग और रामराज्य' में त्रिपाठी जी तुलसी वर्णित कलियुग की विषमता और रामराज्य के स्वप्न के प्रारूप को सामने रखते हैं.

तुलसी का कलियुग पौराणिक कलियुग नहीं बल्कि आँखों देखी उस समाज का वर्णन है जो 'अनेक प्रकार के पाप, ताप दोष और दरिद्रता से पीड़ित है.'(पृ० ८६) जिसके प्रमुख लक्षण कपट और मिथ्या आचरण है. रचनाओं में इसका प्रवेश भी अलग-अलग ढंग से होता है. 'रामचरितमानस' में कलियुग-वर्णन पौराणिक पद्धति पर कथा के रूप में एक पात्र से करवाया गया है किन्तु 'कवितावली' में तो तुलसीदास ने खुले तौर पर अपने समाज की विषमता का चित्रण किया है. 'रामचरितमानस' में सामाजिक आचार-भ्रष्टता और वर्णाश्रम-व्यवस्था के शिथिल हो जाने का अधिक रोना रोया गया है, जबकि 'कवितावली' में दरिद्रता और अकाल का चित्रण अधिक है. 'कवितावली' का वर्णन अपेक्षाकृत यथार्थपरक, वास्तविक और मार्मिक है. (पृ० ८८)

कलियुगी कुराज को उबारने की कल्पना तुलसी सुराज के रूप में करते हैं. ''तुलसी का 'सुराज' 'जनतंत्र' नहीं है, वह 'रामराज्य' है." (पृ० १०१) राम के भरोसे ही विकल्प की परिकल्पना. तुलसी की दृष्टि में 'सुराज' का प्रथम लक्षण भूखे को अन्न मिलना और भरपूर फ़सल है. जहाँ सुराज है वहाँ सुख संपत्ति है. विवेक नरेश है, विराग सचिव है, यम, नियम वीर है. पशु-पक्षी, मुनिजन सब प्रसन्न हैं. चूँकि राम लोक से सम्बद्ध हैं इसीलिए ऐसा राज्य राम ही दे सकते हैं. 'रामराज्य' तुलसी द्वारा कल्पित ऐसा स्वप्नलोक है जो संपूर्णतः सुखद है. वह कोई आध्यात्मिक या अन्तस्साधानात्मक उपलब्धि नहीं है. वह ब्रह्मानंद या अमृत सरोवर का रस पीने या परम समाधि की स्थिति नहीं है; वह संसार के दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से मुक्त हो जाने की स्थिति है -'दैहिक दैविक भौतिक तापा | रामराज्य काहुहिं नहिं ब्यापा ||' (पृ० १०४) तुलसी की रचनाओं में 'कुराज' और 'सुराज', 'कलियुग' और 'रामराज', विषमताग्रस्त समसामयिक समाज और आदर्श समाज एक दूसरे का विरोधी होकर भी सर्वत्र साथ-साथ विद्यमान है. त्रिपाठी जी ने लिखते हैं - "तुलसी का रामराज्य उनके कलियुग के पेट में से निकलता है. जिस तरह कलियुग तुलसी की मुख्य कृतियों में विशेषतः 'रामचरित' में आद्यंत, अनेकानेक स्थलों पर विविध रूपों में विद्यमान है उसी प्रकार रामराज्य भी. कलियुग और रामराज्य तुलसी के कृतित्व के संरचनात्मक घटक हैं." (पृ० १०१)

स्पष्ट है कि तुलसी के साहित्य में यथार्थ और स्वप्न, वास्तविकता और कल्पना की सहभागी उपस्थिति है जो वर्ण्यविषय में तन्मयता के बिना संभव नहीं. पुस्तक के अंतिम अध्याय तुलसी की कविताईमें विश्वनाथ त्रिपाठी तुलसी की रचनाधर्मी तन्मयता को सामने लाते हैं. कबित बिबेक एक नहिं मोरेकहने वाले रचनाकार के कविता-विवेक की बहुआयामी विशेषताओं को सोदाहरण प्रस्तुत करते हैं. गिरा अनयन नयन बिनु बानीका अहसास रखने वाले तुलसी अपनी रचना में रामकथा के पात्रों के चरित्र का बड़ी कुशलता से नवीनीकरण करते हैं. वह भी किसी पूर्वनिर्मित साँचे में नहीं बल्कि अपने युग की मनःस्थिति एवं मनोवृत्तियों के अनुरूप. रामचरितमानसके पात्र लौकिक पात्र हैं. वे देश-काल, घटनाओं, परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से विकसित होते रहने वाले गत्वर पात्र हैं. इसीलिए उनकी जटिलता और तनाव कथानक के विन्यास को विस्तार देती है. (पृ० ११९)

श्रव्य को दृश्य में रूपांतरित करनेवाली नाटकीयता की कसौटी पर भी त्रिपाठी जी ने तुलसी की कवित्व-शक्ति को परखने की कोशिश की. उन्होंने लिखा – “नाटकीयता कविता में सक्रिय चित्रात्मकता का ही दूसरा नाम है. नाटकीयता केवल कथानक-विन्यास में नहीं, संवाद, वाक्य-गठन, शब्दों की ध्वनि-योजना, छंदों की यति रचना के प्रत्येक उपकरण में रची-बसी होती है....अनुभूति की तीव्रता जैसे सघन बनकर उपमा, प्रतीक, बिम्ब बनते हैं, भाषा उसी प्रकार अनुभूति की धार पर कटकर विवरणात्मकता से नाटकीयता में पर्यवसित हो जाती है. (पृ० १२६-२७) इसमें स्वभाविकता और विशिष्टता दोनों अनिवार्य है. उपरोक्त सन्दर्भ में त्रिपाठी जी द्वारा प्रस्तुत कई उदाहरणों में राम-भरत मिलनऔर वन-मार्ग पर सीता और ग्राम-वधुओं का संवादअधिक मनोरम है. उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकार, प्रयुक्त शब्दों की ध्वनि-योजना, छंद आदि चित्रण के जरिये परिस्थिति की विशिष्टता को सामने लाकर पाठकों-श्रोताओं की मार्मिक अनुभूति को जगानेवाले तुलसीदास की एक और विशेषता पर त्रिपाठी जी ने संकेत किया. उन्होंने लिखा – “तुलसी ने मार्मिक स्थलों पर अश्रुपात बहुत कम कराया है. उनके यहाँ आँसू या तो नेत्रों में छा जाते हैं या आँखों के कोने से लगे रहते हैं – ‘लोचन-जल रह लोचन कोना | जैसे परम कृपन कर सोना ||’ (पृ० १२९)

सामान्य में कुछ अतिरिक्त गुणों का सन्निवेश कराके उसे विशिष्ट बना देने वाले सादृश्य-विधान के सन्दर्भ में केवल प्रयोगवाद के उपमान मैले नहीं हुए. रूढ़ उपमानों से तुलसी भी परेशान थे
सब उपमा कबि रहै जुठारी | केहि पटतरौं बिदेह कुमारी ||” फिर भी तुलसी के यहाँ लोक-जीवन से सीधे-साधे उठाकर ऐसे सादृश्य-विधान प्रस्तुत किये गए हैं, जो स्थिति की विशिष्टता को भरपूर चित्रित कर देते हैं. त्रिपाठी जी इस पर भी ध्यान देने की ज़रुरत महसूस करते हैं कि तुलसी प्रसन्नता, प्रेम, पुलक के अवसरों पर प्रायः दरिद्रता, भूख, धन, पारसमणि, अंधापन, रोग से मुक्ति को सामने लाकर सुखद अनुभूति को व्यंजित करते हैं. (पृ० १३३)
पावा परम तत्व जनु जोगी |
अमृत लहेउ जनु संतत रोगी ||
जनम रंक जनु पारस पावा |
अंधिहि  लोचनलाभु सुहावा ||
मूक बदन जनु सारद छाई | ..... (आदि)

इसीलिए मानना चाहिए कि दैहिक-दैविक-भौतिकतापों से मुक्ति अर्थात् लोकमंगल का तुलसी की कविता से रचनात्मक सम्बन्ध है. (पृ० १३६) तुलसी की ध्वनि-योजना सम्बन्धी विशेषता को भी सोदाहरण प्रस्तुत करते हुए त्रिपाठी जी लिखते हैं -'शब्दों का अर्थ और ध्वनि की योजनायें एक-दूसरे के समतुल्य होकर साहित्य की रचना करती है ... कविता में प्रयुक्त शब्द अपनी ध्वनि-योजना से भी अर्थ झंकृत करते हैं. ये सभी अर्थ एक-दूसरे से अभिन्न होकर काव्यार्थ की रचना करते हैं. शब्दों की ध्वनि-योजना द्वारा अर्थ की झंकार देने में तुलसीदास जैसी निपुणता हिंदी के किसी अन्य कवि के पास नहीं हैं.’ (पृ० १३८) ऐसे में यह कथन भी अतिश्योक्ति नहीं लगता कि तुलसी की पंक्तियों में वह रपटन और फिसलन है कि उनका एक शब्द याद पर जाए तो पूरी पंक्ति अपने आप ही स्मृति में उदित हो जाती है.’ (पृ० १४०)

तुलसीदास का मूल्याङ्कन भारतीय काव्यशास्त्र की कसौटियों पर किया जाए या आधुनिक साहित्य के आलोचनात्मक प्रतिमानों के सहारे, सभी अंतर्विरोधों के बीच उनका काव्योत्कर्ष कम नहीं होता. रामचरितमानसका डिजिटलीकरण इसी का संकेत है.

विश्वनाथ त्रिपाठी अपने विचार के साथ कार्ल मार्क्स, आई. ए. रिचर्ड्स, रामचंद्र शुक्ल, रामविलास शर्मा जैसे विद्वत जनों को भी उद्धृत करते हैं. साथ ही तुलसी की रचनाओं के पाठ में उनके आद्यन्त संघर्षमय जीवन के प्रसंगों को जोड़कर अपने लोकवादीविशेषण को अर्थवान बना देते हैं. लोकवादी तुलसीदासमें तुलसीदास की रचनाओं को देश-काल-सापेक्ष देखे जाने का आग्रह है. इसके बगैर न सही आस्वाद लिया जा सकता है ना ही उनके अंतर्विरोधों को ठीक से पहचाना जा सकता है.

प्रबंध रचनाओं के विन्यास में विविध जीवन के विविध रूप-राग का जटिल गत्यात्मक प्रवाह होता है. ऐसे में स्वाभाविक है कि रचना का पाठ भी युग-बोध और मानवीय करूणा के सन्दर्भ में सरल नहीं रह जाता. त्रिपाठी जी ने तुलसी की रचनाओं को वर्ण्य-विषय में समाहित विस्तृत समाज के व्यापक परिपेक्ष्य में विश्लेषित किया है. इसीलिए उनकी दृष्टि में तुलसी का काव्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे प्रमाणिक संदर्भ कोश है. उसमे तुलसी द्वारा देखा और समझा हुआ भारत मौजूद है. इसमें उसकी विषमतायें, अच्छाइयाँ-बुराइयाँ, सुख-दुःख भी है और उसकी आशा-आकांक्षा भी मौजूद है.’ (पृ० १४५) अनायास नहीं है कि मानसके प्रारंभ में राम-कथा को  तुलसी ने नदी कहा तो कितनी दूर तक रूपक का निर्वाह करते गए. नदी के विषय में शायद ही कोई बात छूटी हो जिसकी समानता कथा में न दिखाई गई हो. नदी का उद्गम, जल, भंवर, कमल, पुरईन, जल का स्वाद, स्नानार्थी, नदी के किनारे जुड़ने वाले मेले, जलचर, काई, ठंडक से नदी में स्नान करने का डर, मगरमच्छ, घड़ियाल, सागर में उसका मिलन सब कुछ तो कथा पर घटित कर दिया गया. नदी और रामकथा मिल-जुलकर एक पूरा समाज अपने में खींच लाते हैं. (पृ० १३७) उसी में प्रकट होते हैं शील-स्वभाव, नैतिकता एवं आचरण के आदर्श, जीवन-मूल्यों के लोकनायक राम जो तुलसी के रचना संसार में राम-राज्य रुपी आशा और आकांक्षा का प्रतीक-स्वप्न रचते हैं.

लोकवादी तुलसीदासपुस्तक लोकवादिता की स्थापना के सन्दर्भमय उदाहरणों से परिपूर्ण है. इतिहास, राजनीति और समाज के शास्त्रीय संदर्भो के लिए पाठकों को स्वतंत्र छोड़ दिया गया है. समकालीन उत्तरआधुनिक सूचना तकनीकी के दौर में जहाँ साहित्य का पाठ वैविध्य संदर्भो से दूर वैश्विक कर्मकांडी आडम्बर के भाव प्रवाह में सराबोर होता जा रहा है, भक्त कवि तुलसी पर केन्द्रित इस पुस्तक की उपयोगिता असंदिग्ध है.


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