*** महादेवी का सर्जन : प्रतिरोध और करुणा

'छायावाद' हिन्दी कविता के भीतर 'पैराडाइम शिफ्ट' का प्रमाण है. परन्तु यह परिवर्तन हिन्दी काव्य परम्परा का जैसा कि रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह ने कहा है, भक्तिकाव्य के बाद काव्य और सामाजिक चेतना दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण विकास है. यह विकास यात्र घनानन्द, आलम, बोधा, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि से होती हुई छायावाद तक पहुंची है. स्वाधीनता बोध, सत्याग्रह, हृदय से बुद्धि का अनुशासन, स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह, असीम और ससीम का मिलन, सुख दुख की पारस्परिकता, सान्त्वनापरकता, काल की चक्रीयता, प्रतीकात्मकता, अस्पष्टता, लाक्षणिकता, संकेतपरकता, व्यक्त के बजाय अव्यक्त पर बल, वर्जित स्पर्श और काव्यात्मक 'मैं' में हम की क्रमिक स्वीकृति आदि विशेषताओं से समृद्ध छायावाद के कारण साहित्य और समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की रूढ़ियों और बन्धनों से मुक्ति की चेतना विकसित हुई. वैयक्तिक पीड़ा, दुःख तथा वेदना की निजी और सार्वदेशिक अस्ति और भवति की स्वीकृति और निजी प्रेम की अभिव्यक्ति का साहस और संकल्प विकसित हुआ. सार्वदेशिक पीड़ा - दुःख और वेदना निजता के विस्तार, या सूक्ष्म के द्वारा स्थूल को परिभाषित करने के परिणाम हैं. छायावादी कवि का प्रकृति वर्णन इस अर्थ में कवि की निजता का ही विस्तार है. यह विस्तार महादेवी में धीरे-धीरे काव्य समय बन गया जिसके कारण कुछ आलोचकों ने इसे 'कृत्रिम'1 या 'बौद्धिक दुःखानुभूति'2 की संज्ञा दी. परतु महादेवी में बौद्ध धर्म के प्रभाव और पिछड़े इलाके में अधनंगे, अधभूखे, प्रताड़ित गरीबों और निम्न वर्गों के बीच काम करने से निर्मित करुणा ने संसार के अन्धकार, अज्ञान, दैन्य और पीड़ा को कम करने प्रेम करुणा के लिए दीपक की तरह अपने को विसर्जित करने की मूल्यचेतना विकसित की. शायद यही वजह है कि करीन शोमेर ने महादेवी के लिए self consuming lamp 3 का सार्थक शीर्षक दिया है. मुक्तिबोध में 'खून' शब्द का सर्वाधिक प्रयोग है तो 'दीपक' का सर्वाधिक प्रयोग महादेवी वर्मा ने किया है. 'दीप' ( नीहार) 'मधुर मधुर मेरे दीपक जल' ( नीरजा) और 'मोम सा तन गल चुका है' कविताओं को उद्धृत करते हुए शोमेर ने निष्कर्ष निकाला है कि ये कविताएं महादेवी के 'आत्मभक्षी दीप' अभिप्राय को ही व्याख्यायित नहीं करतीं बल्कि उनकी कविता की सामान्य मुद्रा और बुनावट का प्रतिनिधि रूप भी मानी जा सकती हैं.4

महादेवी उन महिलाओं में हैं जिन्होंने विवाह संस्थान को अस्वीकार किया. उनका विवाह एक डॉक्टर से हुआ पर विदा होकर उसके घर जाने से उन्होंने दृढ़तापूर्वक मना कर दिया. पिता ने विवाह के बन्धन से मुक्ति के लिए धर्म परिवर्तन की सलाह दी , बल्कि बेटी के लिए स्वयं भी धर्म परिवर्तन को तैयार हो गये लेकिन महादेवी ने इसको भी नकार दिया. उन्होंने अनेक धार्मिक सम्प्रदायों को टटोला था, वहां उन्हें स्त्री का अपमान और किसी न किसी प्रकार की सड़ान्ध ही दिखी. बौद्ध धर्म में दीक्षित होने गयीं, लौट आयीं, और अन्ततः गांधी के प्रभाव से सेवा का व्रत लिया. झूंसी में दरिद्र, प्रताड़ित, बेसहारा, निष्कासित और असहाय बच्चों को पढ़ाने के लिए स्कूल खोला. पढ़ाने और जागरण का कार्य करने लगीं. भटकटैया के पौधे से लेकर ठण्ड से सिकुड़े पिल्लों और जीव जन्तुओं का संरक्षण, पालन पोषण करती रहीं. नीलकण्ठ की मृत्यु पर उसको रेशमी शाल में लपेट कर गंगा में परिजन की तरह प्रवाहित किया. दलित और निष्कासितों का आश्रय बनी रहीं. वहां उन्हें जीवन की वास्तविकाता के दर्शन हुए. 'अतीत के चलचित्र' और 'स्मृति की रेखाएं' इस प्रतीति के 'करुण' प्रगीत ही तो हैं. स्वाधीनता आन्दोलन में जेल जाने वाले परिवारों की लड़कियों को पढ़ाने और संरक्षण की जिम्मेदारी प्रयाग महिला विद्यापीठ के प्राचार्य के रूप में संभाली और इस राजनैतिक और सांस्कृतिक सामाजिक कार्य से जुड़ी रहीं. जीवन के अकेलेपन को साहित्य, पठन पाठन और सामाजिक कार्य से भरने का आजीवन प्रयत्न किया. घुटने टेक कर - झुक कर - उन्होंने कभी बात नहीं की. आपात्काल में भरी सभा में देश को कारागार बनाने का उल्लेख करते हुए उसका विरोध किया. मन्दिर के दीप की तरह अजिर के सूनेपन को प्रभाती तक भरने के आजीवन संकल्प और उससे प्राप्त आत्मसन्तोष की प्रतीति उनकी कविताओं में अन्तःप्रवाहित रक्त की तरह व्याप्त है.

महादेवी वर्मा की 'श्रृंखला की कड़ियां', और 'अबला' तथा 'विधवा' जैसी कविताएं, पढ़ते समय एक विचित्र प्रकार की प्रतीति होती है. भारतीय स्त्री का चित्र उनकी रचनाओं में धर्म, संस्कृति और समाज की नींव में चुने जाते हुए कंकड़ पत्थर की तरह दिखता है, यह चित्र करुणा और आक्रोश दोनों पैदा करता है. इतना ही नहीं, वह उसको कविता में रूपायित और सम्प्रेषित करने का एक मुहावरा भी विकसित करता है. वह स्त्री की नियति को पीड़ा, दुःख, विरह, चिर प्रतीक्षा आदि के मुहावरे में अभिव्यक्त करता है. उनके चित्रें में भी स्त्री का आत्मविसर्जनात्मक विकल्प है. रेखाचित्रें और संस्मरणों में अत्यन्त प्रताड़ना और क्रूरता के बावजूद - विद्रोह कम विसर्जन या आत्महत्या ही अन्ततः कर्णाधार है - यह सन्देश पाया जाता है. ऐसी अनेक कविताएं हैं जो महादेवी के जीवन की रिक्तता, एकाकीपन और अन्तरसुप्त व्यथा को व्यंजित करती हैं, लेकिन ऐसी भी अनेक कविताएं हैं जो संसार के गहन अंधेरे के खिलाफ लड़ने का संकल्प भी व्यक्त करती हैं. जैसे
शून्य मेरा जन्म था
अवसान है मुझको सवेरा
प्राण आकुल के लिए
संगी मिला केवल अंधेरा

-------------------------------सांध्यगीत
उनसे कैसे छोटा है
मेरा यह भिक्षुक जीवन?
उनमें अनन्त करुणा है
इसमें असीम सूनापन
----------------------------------नीहार
सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक,
रागिनी अपनी जला लूं
क्षितिज कारा तोड़ कर अब
गा उठी अनन्त आंधी
अब घटाओं में न रुकती
लास तन्मय तड़ित बांधी
धूलि की इस वीणा पर मैं
-------------------------------दीपशिखा
महादेवी की घनिष्ठतम मित्र, सहपाठिनी कवि सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी के अन्तरंग क्षणों की बात का उल्लेख करते हुए प्रसिद्ध कथाकार और प्रेमचन्द की जीवनी 'कलम का सिपाही' के लेखक अमृत राय ने लिखा हैः
"दोनों स्त्रियां अपनी बातों में लीन, अपने परितृप्त बाल बच्चों में मगन बतियाये जा रही थीं कि एकाएक लगा कि जैसे कोई फूट फूट कर रो पड़ा. वह रोना जैसे फूटा था वैसे ही भीतर समा भी गया पर कमरे में एकाएक सन्नाटा छा गया. जो व्यक्ति रो पड़ा उसका यह रूप इतना अप्रत्याशित था कि सब जैसे सकते में आ गये. शुभ्रवसना, प्रसन्नवदना महादेवी जी जिनको लोगों ने सदा हंसते ही देखा था, वो कभी इस तरह फूट कर रो भी पड़ेंगी, इसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी पर अनजाने ही, अपने सुख दुःख में भूली, अपने परिवार में मगन उन गृहणियों ने उनकी कौन सी दुखती रग छू दी थी कि उनका वह हंसमुख मुखौटा बरबस हट गया. उस क्षण मैंने जिस निचाट सूने एकाकीपन की एक झलक पायी, वह सचमुच डरा देने वाली थी पर उसी के साथ साथ ऐसी स्त्री के लिए मेरे मन का आदर जैसे और सौ गुना बढ़ गया जिसने इस पुरुषशासित रूढ़िग्रस्त समाज में अकेले रह कर जीवन को बिना किसी दैन्य या कमजोरी के इस बहादुरी के साथ जिया." 5
महादेवी ने बड़ी कुशलता और बौद्धिक सजगता के साथ छायावाद के और अपने विरोधियों को उत्तर दिया. उनकी पुस्तकों की भूमिकाएं एक प्रकार से छायावाद का काव्यशास्त्र निर्मित करती हैं. इस तरह का कार्य पन्त, प्रसाद और निराला ने भी किया था. प्रसाद और महादेवी ने वैदुष्य युक्त तार्किकता और उदाहरणों के द्वारा 'छायावाद' और रहस्यवाद के वस्तु शिल्प की पूर्ववर्ती काव्य से भिन्नता तथा विशिष्टता ही नहीं बतायी, यह भी बताया कि वह किन अर्थों में मानवीय संवेदन के बदलाव और अभिव्यक्ति के नयेपन का काव्य है. उन्होंने किसी पर भाव साम्य, भावोपहरण आदि का आरोप नहीं लगाया केवल छायावाद के स्वभाव, चरित्र, स्वरूप और विशिष्टता का वर्णन किया.

महादेवी उन कवियों में हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार , रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की. इसलिए महादेवी वर्मा के यहां वेदना वैयक्तिक, न होकर समष्टि भावित और व्यापक है. छायावाद की वेदना को मात्र वैयक्तिक मानना कविता और कवि दोनों के साथ अन्याय है. डॉ. नामवर सिंह ने इसे रेखांकित किया हैः
"निजी आंसुओं के 'नीहार' में बन्दिनी रहने वाली महादेवी ने 'रश्मि' के आलोक में जीवन की व्याप्ति का दर्शन किया और प्रखर ताप को झेलते हुए सांध्य क्षणों तक जाते जाते समाजव्यापी दुःख की अनुभूति करने लगीं. उनकी नीर भरी बदली का दुःख केवल प्रणय व्यथा ही नहीं है, उसमें अनेक प्रकार के सामाजिक असन्तोष घुलेमिले है." 6

कविता का जो मुहावरा महादेवी वर्मा ने विकसित किया उसके भीतर जितना आंसू और विरह, पीड़ा और वेदना है वह स्वानुभूतिमय है. परन्तु वाह्याभ्यंतरित और आभ्यंतरितवाह्य का प्रक्रियागत उन्मोचन होने के तर्क से केवल निजी नहीं है. उन्होंने सभी भूमिकाओं में बर्हिजगत और अन्तर्जगत, असीम और ससीम के रिश्ते को विस्तार से अनेक बार स्पष्ट किया है. महादेवी को इसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी कि उनकी कविताओं पर इसको लेकर कई बार आक्षेप किये गये. 'स्मृति की रेखाएं', 'अतीत के चलचित्र', 'मेरा परिवार' और 'श्रृंखला की कड़ियां' के साथ उनकी कविताओं को पढ़ने पर लगता है कि कविता में अभिव्यक्त पीड़ा, वेदना, विरह, दुख निजी नहीं व्यापक मानवीय संवेदना के ही रूपान्तरण हैं. वे जितना निज की अभिव्यक्ति बनते हैं उतने ही दुःखदग्ध जगत के भी. महादेवी ने छायावाद में 'मैं' शैली स्वानुभूतिमयी वेदना के सत्यापन के लिए ही नहीं अपनायी. वह महादेवी की कविता का एक मुहावरा है जो संवादात्मक न होकर आत्माभिव्यंजक है. परन्तु इसी आधार पर उसे 'बुद्धिआविष्कृत' करुणा कहना भ्रामक होगा. महादेवी ने इसका उत्तर भी दिया है. उन्होंने शुक्ल जी की स्थापना को कि 'ज्ञानप्रसार के भीतर ही भावप्रसार होता है' या 'यात्र पर निकलती रही है बुद्धि पर हृदय को साथ लेकर' उलट दिया है. महादेवी वर्मा की स्थापनाओं में यात्र में हृदय ही निकला है बुद्धि को साथ लेकर. बहिर्जगत का प्रत्ययन बुद्धि का कार्य था, जो हृदय की असीमता में अपने को विसर्जित करके ही काव्य का विषय बन सकता था. भावना या हृदय की प्राथमिकता पर महादेवी ने कविता के सन्दर्भ में निरन्तर बल दिया है. ससीम को असीमिता प्रदान करने का कार्य महादेवी वर्मा की दृष्टि से साहित्य का मुख्य नहीं एकमात्र कार्य है. निश्चय ही इस एकनिष्ठता के तर्क से ही बाह्यभ्यंतरित बाह्य का सिद्धान्त विकसित होता है. परन्तु मुक्तिबोध में 'तीसरा क्षण के सिट्ठान्त' से स्थिति बदल जाती है. महादेवी वर्मा की स्थापनाओं में यह द्वैत चलता रहता है. कुछ उद्धरणों से यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाएगी. यहां यह कहना पर्याप्त होगा कि महादेवी की पुस्तक भूमिकाओं में स्थापनाओं की दृष्टि से कविता की तरह ही एकवाक्यता है. प्रायः वही बातें अनेक बार कही गयी हैं. संग्रहों की भूमिकाएं ही 'साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध' में संकलित हैं इसलिए अपने आपमें कुछ पंक्तियों के जोड़ के बाद भी पुस्तक में नयापन नहीं है. ये बातें भावना के हाथों बुद्धि को ग्रहण करने या बुद्धि के माध्यम से भावना को समझने की बजाय दोनों की पारस्परिकता और सामंजस्य पर निर्भर हैं अन्यथा एकान्तिकता के कारण काव्य नष्ट हो सकता है -
"मनुष्य के अन्तर्जगत का विकास उसके मस्तिष्क और हृदय का परिष्कृत होते चलना है. परन्तु इस परिष्कार का क्रम इतना जटिल होता है कि वह निश्चित रूप से केवल बुद्धि या केवल भावना का सूत्र पकड़ने में असमर्थ ही रहता है. अभिव्यक्ति के बाह्य रूप में बुद्धि या भावपक्ष की प्रधानता ही इस धारणा का आधार बन सकती है कि हमारे मस्तिष्क का विशेष परिष्कार चिन्तन में हो सका है और हृदय का जीवन में. एक में हम वाह्य जगत में संस्कारों को अपने भीतर लाकर उनका निरीक्षण परीक्षण करते हैं और दूसरे में अपने अन्तर्जगत की अनुभूतियों को बाहर लाकर उनका मूल्य आंकते हैं."7

"साहित्य में मनुष्य की बुद्धि और भावना इस प्रकार मिल जाती है जैसे धूपछांही वस्त्र में दो रंगों के तार जो अपनी अपनी भिन्नता के कारण ही अपने से भिन्न एक तीसरे रंग की सृष्टि करते हैं. हमारी मानसिक वृत्तियों की ऐसी सामंजस्यपूर्ण एकता साहित्य के अतिरिक्त और कहीं सम्भव नहीं."8

"काव्य में बुद्धि हृदय से अनुशासित रह कर ही सक्रियता पाती है."9
'विश्ववीणा में अस्फुट झंकार मिलाने की आकांक्षा', 'असीम का लघु सीमा से मेल', 'मिटने में अमरता की सम्भावना', 'बीते युग के स्थान पर सपनों का अमर राज्य बनाने की कामना', अमरता और नश्वरता की पारस्परिकता, महादेवी में 'नीहार' से लेकर 'दीपशिखा' तक मिलती है. 'करुणा' और स्नेह उनका स्थायी भाव है, और विद्रोह संचारी. अनन्त करुणा और असीम सूनेपन के मिलने की अवस्था महादेवी को निश्चय ही निराशा से मुक्त करती है. व्यक्तिगत सूनापन, पीड़ा, दुःख, वेदना का अभ्यन्तरीकरण अभिव्यक्ति के स्तर पर समष्टिगत होकर जीवन को एक सार्थकता पर लेता है. इस सार्थकता को दीपक के प्रतीक द्वारा अनेकार्थक रूपों में व्यक्त किया गया है. चातक का प्रयोग आतुरता, एकनिष्ठता, प्रतीक्षा, व्याकुलता, तल्लीनता के रूप में कविताओं में अवश्य है पर बहुत कम। दीपक आत्मा या निर्वाण के संकेत के लिए ही नहीं है, निःस्वार्थ भाव से अन्धकार को दूर करने और 'प्रियतम का पथ आलोकित करने' के लिए भी है. वह आत्मविसर्जित होने के अर्थ में प्रयुक्त होकर साधन और साध्य दोनों ही अर्थों में एक मूल्य की प्रतिष्ठा भी करता है. 'यह वह उदात्त भाव है, जो महादेवी के परवर्ती गीतों में इतनी गहरी पीड़ा उत्पन्न करता है. इसलिए महादेवी का अन्तिम गीत भी यथार्थ का गहरा पुट लिए हुए है. प्रसाद और पन्त की तरह उनमें आदर्श अथवा सुखद लोक में पलायन करने की भावना नहीं है.'10 उनके काव्य का दूसरा प्रिय प्रतीक 'बादल' निराला, प्रसाद और पन्त से भिन्न अर्थ और भिन्न मुहावरे में प्रयुक्त होकर समता, न्याय, बन्धुत्व, करुणा, मंगल, आंसू, वेदना, शिव और सौन्दर्य का संकेत बन जाता है.

'अतीत के चलचित्र' और 'स्मृति की रेखाएं' में 'दुग्धदग्ध जगत' का दारुण रूप महादेवी ने जिस तरह प्रस्तुत किया है वह वेदना, पीड़ा और दुःख की प्रतीति को बुद्ध की तरह प्रेम और करुणा में बदल देता है, जो पीड़ा और दुःख के कारणों से मुक्ति के रास्ते ढूंढने तथा सांत्वना देने में आचरित हो जाता है. इसलिए महादेवी वर्मा का काव्य एक स्तर पर विषयिता के विषय बन जाने के कारण ममेतर हो जाता है. उनके 'मैं' में जिसके कारण बार-बार उन पर आक्षेप किये गये भक्तिन, बिबिया, गुंगिया, मुन्नू, भाभी, सबिया, विन्दा, बिट्टो, बालिका मां, अभागी स्त्री, बदलू, लछमा, घीसा और नीलकण्ठ, सोना, वसन्त, गोधूलि, राधा आदि शामिल हैं. इसलिए उनके 'मैं' को विरह, मिलन, रुदन, हास जैसे स्वानुभूतिमूलक दुःख सुख को{नगेन्द्र की तरह 11} न तो फ्रायडीय प्रसंग में अतृप्ति की तृप्ति के रूप में देखा जा सकता है, न बौद्धिक प्रतीकीकरण के रूप में, और न महज रहस्यवाद के रूप में. क्योंकि कविता में वैयक्तिकता के भीतर से अभ्यन्तरित समष्टि झलकती रहती है. दुख और सुख की निरन्तरता का वर्णन वैसे तो छायावाद की विशेषता से अधिक रूढ़ि है परन्तु इसका एक पाठ सांत्वनापरकता भी है, जो क्लासकीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण लक्षण माना जाता रहा है. महादेवी के काव्य की प्रतीक व्यवस्था में जहां दीपक से जीवन की सार्थकता का संकेत मिलता है वहीं पीड़ित और दुखी के लिए यह सांत्वना भी है कि ये स्थायी नहीं हैं. पतझड़ और वसन्त आदि के अनेक प्रतीक इस संकेत के लिए प्रयुक्त हुए हैं कि जीवन सुख दुःख का क्रम है. बौद्ध शब्दावली में भवचक्र है. महादेवी की दुखात्मक अनुभूति चूंकि बौद्ध धर्म भावित है इसलिए दुःख और पीड़ा आर्यसत्य के रूप में विश्व्याप्त दुःख, पीड़ा और हाहाकार में रूपान्तरित हो जाते हैं. कविताओं में निरन्तर प्रयुक्त 'तम' तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक जड़ता और आंतरिक तमस का भी द्योतक है जिसके नाश के बगैर दुःख समाप्त नहीं हो सकता है. इसलिए पथ है भले ही उस पर अकेले चलने का संकल्प हो. भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अनेक परिदृश्य लाक्षणिक रूप में भविष्य के सपने को वर्तमान से परिभाषित भी करते हैं. अतः काव्य प्रयुक्त इन प्रतीकों को व्यापक अर्थ में ग्रहण करना चाहिए. प्रसाद और निराला में भी अन्धकार के प्रतीक इन्हीं अर्थों में विन्यस्त हैं. नीचे लिखी कविता पंक्तियां 'सत्याग्रह युग' के इस पदविन्यास को स्पष्ट करती हैं:
इस असीमतम में मिल कर
मुझको पल भर सो जाने दो
बुझ जाने दो देव आज
मेरा दीपक बुझ जाने दो
----------------------------नीहार
घोर तम छाया चारों ओर
घटाएं घिर आयीं घनघोर
वेग मारुत का है प्रतिकूल
हिले जाते हैं पर्वत मूल
गरजता सागर बारम्बार
कौन पहुंचा देगा उस पार
----------------------------नीहार
जहां आशा बनती नैराश्य
राग बन जाता है उच्छ्वास
मधुर वीणा है अन्तर्नाद
तिमिर में मिलता दिव्य प्रकाश
हास बन जाता है रोदन
वहीं मिलता नीरव भाषण।
----------------------------नीहार
कुहरे सा धुंधला भविष्य है
है अतीत तम घोर
कौन बता देगा जाता यह
किस असीम की ओर
----------------------------रश्मि

उपरोक्त उदाहरण इन स्थापनाओं का खण्डन करते हैं कि 'उनमें सहज द्रवित सूक्ष्म संवेदना तो थी, पर मुक्त अभिव्यक्ति को सम्भव बनाने वाला निःसंशय आत्मविश्वास नहीं, फलतः उनके काव्य की दिशा उत्तरोत्तर अन्तर्मुख होती गयी और पीछे के काव्य को छायावादी न कह कर रहस्यवादी कहना ही उचित होगा. उनमें भावोच्छ्वास क्रमशः कम होता गया, प्रतीकों का उत्तरोत्तर अधिक सहारा लिया गया.'12 जहां तक 'संकोच' की बात है यह संकोच या वर्जित स्पर्श बकौल विजयदेवनारायण साही छायावाद मात्र में है इसलिए महादेवी इसकी दोषी नहीं हैं. दूसरे उस पार क्या है को जानने की इच्छा और आशंका उन्हें निःसंशय कर भी नहीं सकती थी क्योंकि गांधी इरविन पैक्ट से उत्पन्न 'व्यापक शून्यता', जिसका उल्लेख साही ने पण्डित नेहरू के उद्धरण के प्रमाण से किया है, रिक्तता और शून्यता की वृद्धि ही कर रही थी. उससे क्षितिज के उस पार की जिज्ञासा और कौतूहल आशंका तक सीमित हो जाता था. महादेवी भी अपने समय के कवियों की तरह अन्धकार के पार क्या होगा यह जानना चाहती हैं.

उनकी कविता में निरन्तर विकास मिलता है. भावोच्छ्वास कविता नहीं यह तो निराला भी मानते हैं. उन्होंने लिखा है कि कविता 'शैशव संलाप' नहीं है. महादेवी 'नीहार' और 'रश्मि' के भावोच्छ्वास और शैशव संलाप से 'नीरजा' और दीपशिखा में मुक्त होती जाती हैं. मेरी राय में तो अन्तर्मुखता कम ही हुई बल्कि 'नीरजा' और 'दीपशिखा' के गीतों में वैश्विकता बढ़ जाती है. यह ठीक है कि 'नीरजा' और 'दीपशिखा' में ऐसा लगता है कि जैसे महादेवी वर्मा को बतर्ज रीतिसिद्धता छायासिद्धि प्राप्त है, मगर इस प्रकार की रीतिसिद्धता पन्त और सबसे अधिक निर्मल वर्मा में मिलती है. रमेशचन्द्र शाह को महादेवी जी में यह दोष दिखायी पड़ता है, पन्त और अज्ञेय में नहीं. यह कहना कि 'कविता महादेवी के लिए निखालिस आत्माभिव्यक्ति की बजाय कलाभ्यास के रूप में ही अधिक साध्य रही है'13 या 'उनके गद्य और उनकी कविता के बीच कोई जीवन्त सम्बन्ध नहीं है'14 एक प्रकार का सरलीकरण है. महादेवी की कविता एक सीमित दायरे की कविता है परन्तु वह कविता नहीं काव्याभ्यास है यह कहना कठिन है. यह सही है कि गीत को विशेषीकृत करने का कार्य महादेवी ने किया परन्तु इससे वे मात्र गीतकार नहीं बन जातीं. और गीत कविता नहीं हो सकता यह तो शाह ही कह सकते हैं. निराला, पन्त और प्रसाद के गीतों की परम्परा में ही महादेवी की मूल्यांकन सम्भव है. गीत और कविता के द्वैत को न तो महादेवी ने सम्भव बनाया और न बच्चन और दिनकर ने ही. कवि सम्मेलन और काव्य गोष्ठियों के सस्तेपन पर तो महादेवी ने 'ठकुरी बाबा' के रेखाचित्र में तीखा व्यंग्य किया है15 और 'चांद' के जून 1936 के 'अपनी बात' में लिखा किः
"मिट्टी के कच्चे घडे से गंगाजल भी बह जाएगा चाहे वह पवित्रतम क्यों न माना जाता हो. संसार में आवश्यकता के अनुकूल जो वस्तु है, वही उपयोगी कही जाती है, उसके प्रतिकूल वस्तु से अभाव दूर न होने के साथ साथ असुविधाएं अधिक हो जाती हैं. इस समय सर्वसाधारण में काव्यप्रेम उत्पन्न करने की आवश्यकता थी परन्तु अपने विकृत रूप से कवि सम्मेलन इसके विपरीत कर रहे हैं."16

पन्त जी इससे मुक्त होने के क्रम में प्रवक्ता मात्र ही रह गये या उत्तरवर्ती जीवन में बुद्धिखोजी अध्यात्म के मायाजाल में फंस गये. महादेवी ने अपना रास्ता इसलिए नहीं बदला कि उनके पास जीवनानुभव नहीं था बल्कि पन्त और प्रसाद से तो कहीं ज्यादा था - इसलिए कि कविता का जो मुहावरा उन्होंने विकसित किया प्रसाद, पन्त और निराला से भिन्न उनका अपना था और निश्चय ही वही पहचान और सीमा दोनों का कारण बना. परन्तु यह तो किसी भी मुहावरा विकसित करने वाले साहित्यकार की सीमा होती है. लगभग सभी बड़े लेखकों को अपने मुहावरे से लड़ना पड़ता है.

काव्य में अन्तःप्रवाहित करुणा उनके रचनात्मक गद्य का वस्तुविन्यास है. उनके रेखाचित्रें में उनकी शब्द तूलिका ने हर पात्र को कुछ रेखाओं में न केवल रूपायित किया है बल्कि उस रूपायन से आर्थिक और सामाजिक स्थिति में उसकी मर्मव्यथा भी विन्यस्त होती गयी है. घटनाक्रम, टिप्पणियां और संकेतों से उनमें अतिरिक्त अर्थगर्भता पैदा हुई है. इन अर्थगर्भ संकेतों को समग्र विन्यास के साथ देखने पर पारम्परिक भारतीय समाज के गरीब, अभावग्रत, परित्यक्त, निष्कासित, पदमर्दित, असहाय लोगों के जीवन का, जो दारुण और बेचैनी पैदा करने वाला प्रभाव पड़ता है वह प्रताड़ित के प्रति करुणा और रूढ़िबद्ध गतिहीन समाज के प्रति आक्रोश का भाव पैदा करता है. इन संस्मरणों में महादेवी की जीवन चर्या भी है और व्यष्टि की द्वन्द्वात्मक संहति भी. इस सन्दर्भ में निम्नांकित उद्धरण दृष्टव्य हैं:
"बिन्दा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी, परन्तु उसका नाटापन देख कर ऐसा लगता था, मानो किसी ने ऊपर से दबा कर उसे कुछ छोटा कर दिया हो. दो पैसों में आने वाली खंजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर से हरी हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे. कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पण्डिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था. और बिन्दा की आंखें तो मुझे पिंजरे में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं."17

"एक दिन मास भर के नामधारी मांसपिण्ड को चीकट से कपड़े में लपेट और अपनी नग्नता को मलिनता से ढांकने वाली पांच वर्ष की बचिया को उंगली से सहारा दिये, सबिया मेरे सामने आ उपस्थित हुई. उसका मुख चिकनी काली मिट्टी से गढ़ा जान पड़ता था, परन्तु प्रत्येक रेखा में साचे की वैसी ही सुडौलता थी, जैसी प्रायःपेरिस प्लास्टर की मूर्तियों में देखी जाती है. आंखों की गढ़न लम्बी न होकर गोल गोल होने के कारण उनमें मेले में खोये, बच्चे जैसी सभय चकित दृष्टि थी. हाथ पैर में मोटे मोटे चमकहीन, गिलट के कड़े उसे कैदी की स्थिति में डाल देते थे. कुछ कम चौड़े ललाट पर जुड़ी भौंहों के ऊपर लगी पीली कांच की टिकुली में जो श्रृंगार था, वह था भटकटैया के फूल से घूरे के श्रृंगार का स्मरण दिलाता था. कभी लाल पर अब पुराने घड़े के रंग वाली धोती में लिपटी सबिया ऐसी लगी, मानो किसी अपटु शिल्पी की सयत्न गढ़ी मिट्टी की मूर्ति हो, जिसके सब कच्चे रंग घुल गये हैं और जहां तहां से केवल सुडौल रेखाओं में बंधी मिट्टी झांकने लगी है."18

"बाबा जी मानों आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास को चरितार्थ करने के लिए अवतीर्ण हुए थे. तम्बाकू के पिण्ड जैसे काले शरीर में राख का अंगराग लगा कर, नकली जटाजूट का मुकुट धारण कर और चिमटे का राजदण्ड थाम कर वे एक कुशासन पर आसीन होकर इन याचकों के दरबार का संचालन करते थे. उनके दान की प्रणाली भी कम रहस्यपूर्ण नहीं थी. किसी याचक की ओर प्रसन्न मुद्रा से देख भर लेते, किसी को हाथ के संकेत से आश्वासन देने का अनुग्रह करते, किसी के प्रति चिमटा खनका कर, असन्तोष व्यक्त करते, किसी को धूनी में से चुटकी भर विभूति देकर सन्तुष्ट कर देते, इस प्रकार न उनके पास से कोई पूर्णतः निराश लौट सकता था, न कृतार्थ."19

"बिबिया के शरीर पर घूसों के भारीपन के स्मारक के गुम्मड़ उभर आये थे, लकड़ी के आघातों की संख्या बताने वाली नीली रेखाएं खिंच गयी थीं और लातों की सीमा नापने वाली पीड़ा जोड़ों में फैल रही थी. उस पर द्वार का बन्द हो जाना उसके लिए क्षमा की परिधि से निर्वासित हो जाना था. वह अन्धकार में अदृष्ट की रेखा जैसी पगडण्डी पर गिरती पड़ती, रोती कराहती अपने नैहर की ओर चल पड़ी. झनकू को पति का कर्तव्य सिखाने के लिए कभी एक पंचदेवता भी आविर्भूत नहीं हुए पर बिबिया को कर्तव्यच्युत होने का दण्ड देने के लिए पंचायत बैठी."20

वस्तुत; 'अतीत के चलचित्र' और 'स्मृति की रेखाएं' तो, 'श्रृंखला की कड़ियां' के उदाहरण हैं. इन रेखाचित्रें मे पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के पुरुषोन्मुखी चरित्र के उद्घाटन के साथ ही साथ स्त्रियों की अन्धता, सहनशीलता और मूकता की विडम्बना के भी संकेत हैं. बिबिया का विद्रोह, गंगिया, मातृत्व, मुन्नूकी माई की विवशताजन्य हाड़तोड़ मेहनत, विधवा भाभी पर छायी सास ससुर के आतंक की छाया, और लाल कपड़ों से देवी जी की वितृष्णा, अपराध के अभाव की मर्मान्तक दण्ड सहती विन्दा, न मरने के लिए जीवन संघर्ष करती सबिया, 64 वर्ष वाले पुरुष से जबर्दस्ती ब्याही गयी 18 वर्षीय बिट्टो. समाज के हर व्यंग्य से बचने के लिए घोरतम नरक में अज्ञातवास कर रही करुणामूर्ति बालिका मां, पे्रम करने का अपराध कर बैठी वैश्या पुत्री अभागी स्त्री, ससुराल के अत्याचार से जिसकी हड्डी हड्डी ढीली हो गयी निल और निडर 'लछमा' आदि भारतीय स्त्रियों का इतिहास भारतीय स्त्री की सामाजिक स्थिति के विकृत से विकृततर होते जाने की कहानी मात्र है."21 यह विकृततर होती कहानी चांद में 1935 से 1938 तक 'अपनीबात' शीर्षक से लगातार छपती रही है जो 1942 में श्रृंखला की कड़ियां शीर्षक से प्रकाशित हुई. ध्यान देने की बात है कि महादेवी वर्मा के रेखाचित्र भी इसी समय छपते रहे हैं. निम्नलिखित उद्धरण अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएं के अनुभवों के अधिक तथ्यात्मक विद्रोहपरक रूपान्तरण माने जा सकते हैं।

"चरम दुरवस्था के सजीव निदर्शन हमारे यहां के सम्पन्न पुरुषों की विधवाओं और पैतृक धन के रहते हुए भी दरिद्र पुत्रियों के जीवन हैं. स्त्री पुरुष के वैभव की प्रदर्शनी मात्र समझी जाती है और बालक के न रहने पर जैसे उसके खिलौने निर्दिष्ट स्थान से उठा कर फेंक दिये जाते हैं उसी प्रकार पुरुष के न रहने पर स्त्री के जीवन का कोई उपयोग रह जाता है न समाज या गृह में उसको कोई निश्चित स्थान ही मिल सकता है. जब जला सकते थे तब इच्छा या अनिच्छा से उसे जीवित ही भस्म करके स्वर्ग में पति के विनोदनार्थ भेज देते थे, परन्तु अब उसे मृत पति का ऐसा निर्जीव स्मारक बन कर जीना पड़ता है जिसके सामने श्रद्धा से नतमस्तक होना तो दूर रहा, कोई उसे मलिन करने की इच्छा भी रखना नहीं चाहता."22

"स्त्री किस प्रकार अपने हृदय को चूर चूर कर पत्थर की देव प्रतिमा बन सकती है यह देखना हो तो हिन्दू गृहस्थ की दुधमुंही बालिका से शापमयी युवती में परिवर्तित होती हुई विधवा को देखना चाहिए जो किसी अज्ञात व्यक्ति के लिए अपने हृदय की हृदय के समान ही प्रिय इच्छाएं कुचल कुचल कर निर्मूल कर देती है, सतीत्व और संयम के नाम पर अपने शरीर और मन को अमानुषिक यंत्रणाओं के सहने का अभ्यस्त बना लेती है और इस पर भी दूसरे के अमंगलमय भय से आंखों में दो बूंद जल भी इच्छानुसार नहीं आने दे सकती. अर्धांगिनी की विडम्बना का भार लिए सीता सावित्री के अलौकिक तथा पवित्र आदर्श का भार अपने भेदे हुए जीर्ण शीर्ण स्त्रीत्व पर किसी प्रकार संभाल कर क्रीतदासी के समान अपने मद्यप, दुराचारी तथा पशु भी निकृष्ट स्वामी की परिचर्चा में लगी हुई और उसके दुर्व्यवहार को सह कर भी देवताओं से जन्म जन्मांतर में उसी का संग पाने का वरदान मांगने वाली पत्नी को देख कर कौन आश्चर्याभिभूत न हो उठेगा."23

श्रृंखला की कड़ियां की भाषा 'स्त्री विमर्श' की या एक्टिविस्ट की भाषा है. महादेवी की 'अपनी बात' है. अपने लोगों यानी स्त्रियों की और स्वयं महादेवी की मिलीजुली. इस अर्थवत्ता में भी एक वैयक्तिक संकेतपरकता तो है ही. 'श्रृंखला की कड़ियां' का गद्य रेखाचित्रें और संस्मरणों के गद्य से अलग है. इसमें आक्रोशमूलक विवेचनपरकता है, इसलिए एक प्रकार की पत्रकारिता का संस्पर्श भी है. परन्तु रेखाचित्रें में संस्कार, मान्यताओं, परम्पराओं आदि पर मर्मस्पर्शी व्यंग्य के साथ टिप्पणियों और दृश्यों के नियोजन से यथार्थ और यथार्थ हेतुओं का भयानक संसार बन गया है. पीड़ा और दुःख की व्यापकता से विकसित करुणा और वेदना के कारण यह गद्य छायावाद का ही गद्य है. इसमें भी यात्र पर हृदय ही निकला बुद्धि नहीं पर इनसे समाज के बदलाव की आवश्यकता महसूस होती है. पशु पक्षी, जीव जन्तु, पेड़ पौधे, लता पत्तर सब यहां समान ममता से भावित हैं. उनका वर्णन परिवार के सदस्य के रूप में सम्बन्धों के आधार पर किया गया है. महादेवी की सूक्ष्म दृष्टि यहां भी उन्हीं व्यवहारों को रेखांकित करती है जो भाव संकेत हैं. महादेवी की यह सूक्ष्म संकेती दृष्टि सभी विधाओं में है. वस्तुतः 'मनुष्य अपनी रागात्मक व्याप्ति के बिना समष्टि में पहचाना नहीं जा सकता. वह अपने बौद्धिक विस्तार के बिना माना नहीं जा सकता और इस व्याप्ति और विस्तार के मूल्यांकन के अभाव में मानव जाति की प्रगति का लेखा जोखा अमिट नहीं रह सकता. नदी जिस प्रकार दोनों तटों को अलग अलग स्पर्श करके भी उनको अपनी एकता में रखती है, उसी प्रकार साहित्य भी जीवन की भिन्न जान पड़ने वाली वृत्तियों को अपने स्पर्श की एकता में रखता है. वह बहुमुखी दायित्व देने वाला ऐसा रागात्मक कर्म है जिसके कारण साहित्यकार की स्थिति को एक कारण से देखना कठिन हो जाता है.'24महादेवी वर्मा ने इतिवृत्तात्मक यथार्थ के प्रश्न पर विचार करते हुए प्रसाद 'कंकाल' और निराला की 'भिक्षुक' का उदाहरण देते हुए कहाः
"इस भावभूमि पर परम सुकुमार ये कवि तर्क भूमि पर कितने कठोर हो जाते हैं इसे बिना जाने छायावाद के साथ न्याय नहीं कर सकते."25

यहां महादेवी एक प्रकार से अपने रेखाचित्रें और 'श्रृंखला की कड़ियां' के गद्य की तार्किकता का ही संकेत कर रही हैं. महादेवी के गद्य में ग्रामीण जीवन की सड़ान्ध के प्रमुख कारक धर्म और अर्थ का अनेक स्थानों पर उल्लेख है. वे भी प्रेमचन्द की तरह पुरुषों की पशुता और स्त्रियों की शवता का कारण इन्हीं पुरुषार्थों को मानती हैं. एक दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि महादेवी का समस्त साहित्य स्त्री के प्रतिरोध और करुणा का साहित्य है.

सन्दर्भ
1. छायावाद की प्रासंगिकता, रमेश चंद्र शाह, पृ.170
2. छायावाद, नामवर सिंह, पृ.127
3. Mahadevi Verma and Chayavad age of modern hindi poetry, Kariene Schomer, Published by Oxford India Paper Backs. पृ. 280
4. वही, पृ.240
5. जिनकी याद सदा रहेगी, अमृत राय
6. छायावाद, पृ.136
7. आधुनिक कवि भाग 1, पृ. 8
8. आधुनिक कवि भाग 1
9. दीपशिखा, भूमिका, पृ.20
10. छायावाद, पृ. 145
11. 'महादेवी', सम्पादक इन्द्रनाथ मदान में ( संकलित लेख)
12. हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, अज्ञेय, पृ.65
13. छायावाद की प्रासंगिकता, रमेशचंद्र शाह, पृ.172
14. वही, पृ.172
15. स्मृति की रेखाएं, पृ.78 -79
16. चांद, जून 1936, 'अपनी बात' ( असंकलित)
17. अतीत के चलचित्र पृ.34
18. वही, पृ. 38
19. स्मृति की रेखाएं पृ.115
20. स्मृति की रेखाएं पृ.97
21. श्रृंखला की कड़ियां, पृ. 76
22. वही, पृ.22
23. वही, महादेवी, पृ. 147
24. सम्भाषण साहित्य और साहित्यकार, पृ.76
25. साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध, महादेवी, पृ.139

________________________ सत्यप्रकाश मिश्र, तद्भव, अंक 15, से साभार

1 comments

Kavita Vachaknavee July 27, 2008 at 8:19 PM

पता नहीं कब तक महादेवी को एक ही चश्मे से देखते दिखाते रहेंगे. आँख खोल कर व हजार बार के लिखे गए से आगे सोचना समझाना हिन्दी के लेखक को कब आएगा? वही लकीर पीटते रहते हैं हजार बार की.