*** भक्ति-आन्दोलन : निर्गुण और सगुण


चना का समाजशास्त्र एकपक्षीय नहीं होता और उसका वैविध्य उसको रचनात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। भक्तिकाव्य का प्रत्येक कवि अपनी अलग सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषता लिए हुए है। 'भक्तिकाव्य एक प्रकार से मध्यकालीन भारत की आंदोलित चेतना का प्रतीक है, इसीलिए यह साहित्य तक सीमित नहीं रहा और वास्तु, चित्र, मूर्ति, स्थापत्य, संगीत, नृत्य आदि कलाओं को भी इसने अपने वृत्त में समेट लिया। जितना व्यापक इसका फैलाव था उनती ही अधिक अभिव्यक्तियाँ भी इसमें दिखाई पड़ती है। अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आए कवियों की रचनाएँ स्वाभाविक तौर पर भिन्नता को प्रदर्शित करती है। किन्तु भक्ति-साहित्य के आलोचनात्मक अध्ययन की सबसे प्रमुख कसौटी, जो आज नए अर्थों और नई व्याख्याओं के लिए अवसर दे रही है, निर्गुण और सगुण का भेद है। आ.शुक्ल का इतिहास हालाँकि 'शिक्षितों या विद्यार्थियों' को ध्यान में रखकर लिखा गया और उसमें 'अध्ययन की सुविधा के लिए समूचे भक्ति काव्य को इन दो मोटी श्रेणियों में विभाजित' बताया गया है, लेकिन दोनों के विवेचन में ही इन रचनाकारों और आलोच्य बुद्धि दोनों की सांस्कृतिक भिन्नता दृष्टिगत हो जाती है।

डा. बच्चन सिंह 'हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास' में भक्तिकाल के अध्ययन के अन्त में लिखते हैं कि वर्ण-भेद के आधर पर ही भक्ति-आन्दोलन की इतिहास सम्मत व्याख्या संभव है।1 बात कुछ हद तक सही है लेकिन पूर्णतः नहीं। कबीर जिस सामाजिक-आर्थिक श्रेणी से सम्बन्धित थे उसके लिए जातिगत भेदभाव अस्वीकार्य केवल इसीलिए नहीं था कि परंपरागत समाज में उन्हें निम्न अवस्था में रखा गया था बल्कि जैसा कि हमने पीछे देखा कबीर के समय में एक ऐसा वर्ग अस्तित्व में आया जिसके लिए यह एक ऐतिहासिक आवश्यकता बन गई थी इसलिए कबीर ने महज सांस्कृतिक स्तर पर ही वर्णव्यवस्था का विरोध नहीं किया तथापि इस वर्ग का नेतृत्व करके उसकी तत्कालीन आवश्यकता को अभिव्यक्ति दी है। व्यापारिक उन्नति और तेजी से बढ़ते शहरीकरण ने भारतीय समाज में इस वर्ग को उत्पन्न किया था। भारतीय चिन्तन परम्परा में जो कोई भी महात्मा हुआ है उसे जातिप्रथा से टकराना पडा है, लेकिन कबीर से पहले किसी चिन्तक को समाज में ऐसा वर्गीय आधार नहीं मिला था जैसा कबीर को मिला। इसकी गवाही आगे का भक्ति साहित्य खुद देता है।

निर्गुण और सगुण का द्वन्द्व हमे सूरदास के यहाँ दिखाई देता है। बच्चन सिंह लिखते है भ्रमरगीत के बहाने निर्गुणोपासना की धज्जियाँ उड़ाने में सूर ने कोई कसर नहीं उठा रखी थी। उस समय निर्गुणोपासना की खूब चर्चा थी।2 भ्रमरगीत का आरम्भ ही निर्गुण विरोध से होता है - 'आयो घोष बडो व्यापारी।' आ. शुक्ल ने लिखा है कि भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बडे ही मार्मिक ढंग से - हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्क पद्धति पर नहीं - किया है।3 शुक्ल जी स्वीकारते हैं कि तर्कों के आधार पर नहीं बल्कि 'हृदय की अनुभूति' के आधार पर सगुणोपासना निर्गुण मत से वाद-विवाद करती है। शुक्ल जी की यही 'हृदय की अनुभूति' उनके आलोचनात्मक विवेक पर पूरे इतिहास लेखन और खासकर भक्तिकाल के अध्ययन में तर्कवाद पर हावी रहती है और इसी से उनकी पक्षधरता तय होती है और मथुरा बडा निर्गुणोपसाना या भक्ति आन्दोलन की शुरूआत शहरों से ही हुई थी। सूरदास का जन्म आगरा और मथुरा के बीच स्थित एक गाँव में हुआ था। उस समय में आगरा एक बडा शहर था और मथुरा बडा कस्बा। इसलिए सूरदास निर्गुण भक्ति की तर्कपद्धति से परिचित थे। निर्गुणपंथ की मान्यताओं और ग्रामीण जीवन-मूल्यों के बीच के अन्तर से उन्हें निर्गुण-सगुण के द्वन्द्व का आधार और आवश्यकता दोनों मिलते हैं।

मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि 'मथुरा का ब्रज को यह संदेश नागर संस्कृति का लोक संस्कृति को, बुद्धि का हृदय को, ऐश्वर्य का प्रेम को दिया गया संदेश है।4 सूर की गोपियों ने मथुरा के लोगों के स्वभाव को पहचाना है। मथुरा के जिन लोगों से गोपियों का सम्पर्क हुआ, सभी स्वार्थी, छली और रसलोभी निकले। वे मृदुभाषी क्रूरकर्मा और कृतध्न हैं तथा धर्मात्मा बनने का ढोंग करते हैं।
मधुबन सब कृतज्ञ धरमीले।
अति उदार परहित डोलत है, बोलत बचन सुरीले। (४२१३)
निर्गुणियों की नैतिकता और 'सहज' जीवन आदर्श में इन्हीं स्वार्थ, छल, लोभ आदि प्रवृत्तियों की कड़ी आलोचना की गई है। कबीर का कहना है - कामी क्रोधी लालची, इतने भक्ति न होय। (कबीर ग्र. पद, २३३) 'भ्रमरगीत का मनोवैज्ञानिक पक्ष मानव-मानस के अंतस्तल की गतिविधि का द्योतक है।' मन और बुद्धि का द्वन्द्व शाश्वत है।  मन और बुद्धि,अनुभूति और बोध का द्वन्द्व व्यक्ति की चेतना को तनाव की स्थिति में डाल देता है। सूरदास ने मन और बुद्धि के द्वन्द्व में मन को, भावना को या अनुभूति को ही विशेष महत्व दिया है, जिससे जीवन सृजनशील बनता है।5

भ्रमरगीत में बार-बार निर्गुण, ज्ञान और योग को नगर से जोड़ा गया है। उद्धव से निर्गुण और योग का उपदेश सुनकर गोपियाँ कहती हैं - 'यह प्रिय कथा नगर नारिन सौं, कहहिं जहाँ कछु पावहिं। सूर के अनुसार योग, ज्ञान और निर्गुण का केन्द्र है काशी।' भ्रमरगीत में बार-बार काशी को निर्गुण ज्ञान और योग का गढ कहा गया है।6 उद्धव से निर्गुण का उपेदश सुनकर गोपियाँ कहती हैं - यह प्रिय कथा नगर नारिन सौं, कहहिं जहाँ कछु पावहिं, यह निरगुन लैं तिनहिं सुनावहु, जे मुडिया कसै कासी, या जे गाहक निरगुन के ऊधौ, ते सब बसत ईसपुर कासी। गोपियों को योग की बातें 'कपट-कथा' लगती हैं, गाँव की रीति-नीति के ठीक विपरीत सिद्धों-नाथों और कबीर आदि का नगर या 'कासी' से गहरा सम्बन्ध रहा है। भ्रमरगीत में 'व्योपारी', गाहक, नागर-ग्राम, राजा, नगर नारि आदि शब्द कई बार आते हैं। गोपियाँ उद्धव को 'व्योपारी' कहकर सम्बोधित करती हैं। पीछे ऐतिहासिक अध्ययनों में हमने देखा कि व्यापारिक उन्नति ने मध्यकालीन समाज के भीतर बडी हलचल पैदा की थी। क्या 'ऊधौ' वह व्यापारी है जो नई व्यवस्था का संदेश शहर से गाँव की तरफ ले गया है? सूरदास ग्रामीण संस्कृति की रक्षा करते हुए इस 'व्योपारी' से लड रहे थे तो दादू अपने भगवान को ही जौहरी, राजा, रावत, साहू, सर्राफ आदि के रूप में देखने लगते हैं। भ्रमरगीत की व्यापार से जुडी शब्दावली यह प्रदर्शित करती है कि सूर के समय में यह द्वन्द्व काफी तीव्र हो गया होगा। भागवत से अलग भ्रमरगीत की पूरी कथा यही साबित करती हुई प्रतीत होती है।

मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि ''शहर और गाँव के बीच नैतिक द्वन्द्व भी है। सूर के अनुसार गाँव के जीवन और व्यवहार में सहजता, ईमानदारी और सच्चाई है, जबकि शहर अनैतिकता, छल-प्रपंच और चालाकी का गढ़ है। गाँव की गोपियों की कथा शुद्ध प्रेम-कथा है और शहरी प्रेम-कपट कथा है। ... वहाँ जो जाता है वह लौटकर नहीं आता, वहीं का हो जाता है और जो आता है वह छल-प्रपंच का जाल फैलाता है।''7 गोरखनाथ का 'काया' दर्शन तथा कबीर का 'माया' दर्शन और अन्य निर्गुणियों की 'सन्त-वाणी' समग्रता से देखें तो वे शहरों में व्याप्त इसी अनैतिकता, छल-प्रपंच और चालाकी के विरूद्ध 'सहज' जीवन का आदर्श अपने निर्गुण ब्रह्म में दर्शाते हैं, समझने की बात यह है कि शहरों में व्याप्त इन विकृतियों को वहाँ का भौतिक जीवन एक आधर प्रदान करता है इसलिए वहाँ कबीर का श्रोता समाज उपस्थित है। लेकिन सूरदास के गाँव का जीवन और उस जीवन का अनुभव इस शहरी समृद्धि के जीवन से अलग है। ग्रामीण जीवन उस ऐतिहासिक प्रक्रिया से नहीं जुड पाया है जहाँ उत्पादन के लिए जाति और धर्म के बन्धनों को तोडना आवश्यक लगे या समृद्धि के कारण शहरों में कुछ वर्ग ऐसे बौराए हैं कि उन पर अनैतिकता, छल-प्रपंच और चालाकी का जाल पडा हुआ है। यही कबीर की 'माया' का जाल है। वे इन्हीं प्रवृत्तियों से लड ते हैं। सूरदास के काव्य में उनकी गाँव के प्रति सहानुभूति तो पहचानी गई है, परन्तु शहर और गाँव के द्वन्द्व के कारणों से जूझने की सूरदास और कबीरदास की एकता को भरमा दिया गया है। हाँ यह जरूर है कि कबीर के श्रोता समाज ने कुछ नए जीवन मूल्यों को स्वीकार कर लिया है, जिसका आधर शहर का भौतिक जीवन उस समाज को देता है, परन्तु सूरदास का ग्रामीण समाज अभी उन मूल्यों को जीवन में उतारने के लिए तैयार न हो सका है। कई मायनों में स्थिति आज भी वैसी ही बनी हुई है।

एक और जरूरी बात, सूरदास की गोपियाँ ही क्यों निर्गुण से भिड़ रही है? अगर यह द्वन्द्व सिर्फ शहर की 'प्रगतिशीलता' और गाँव की 'रुढि वादिता' के बीच ही है तो समूचे ग्रामीण समाज को निर्गुण से लड ना चाहिए। शायद कृष्ण मथुरा जाकर निष्ठुर, निर्मोही हो गए हैं उन्हें अपनी गोपियों का बिल्कुल ख याल नहीं रह गया है। गोपियाँ वियोग में मरी जा रही हैं। किन्तु कृष्ण की प्रेमिका राधा है तो फिर बाकी गोपियाँ इतना क्यों तड प रही हैं? ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं कि इस समय में नगरों की जनसंखया में भारी इजाफा हुआ था। यह वृद्धि निश्चित तौर पर आप्रवास से ही हुई होगी। ऊद्यौ वह व्यापारी हैं जो ग्रामीण पुरुषों को व्यापार में लगाकर या उत्पादन के किसी तरीके से जोड कर उन्हें शहर ले जाता है और शहर जाकर ये पुरुष धन कमाने की जरूरत या लालच में अपना घरबार छोडे बैठे हैं। पीछे हमने यह भी देखा कि कृषि के शोषण पर खडी केन्द्रीय सत्ता से किसान बुरी तरह पीडि त थे। यह प्रवास की एक बडी वजह रही होगी। लगता है कि इन्हीं की पत्नियाँ सूर की गोपियाँ बनकर 'व्यापारी' से लड रही है। यह भी लगता है कि शहरों में इसी तबके के कार्यकलापों से शहरों में रहने वाले निर्गुणियाँ सन्त भी जीवन के हर क्षेत्रा में नैतिकता का पाठ पढा रहे हैं। वैश्यादासी से सम्बन्ध न बनाने की सलाह दे रहे हैं। कामी नर तथा पतिव्रता को अंग लिख रहे हैं। मध्यकालीन समाज की विचलन में यहाँ नई आर्थिक शक्तियों की भूमिका दिखलाई पड ती है। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की महत्वूपर्ण कवयित्री मीरा के आराध्य है कृष्ण, इसलिए उन्हें सगुण भक्ति धारा से जोडा जाता है। परन्तु उनके समय में उनकी आलोचना इसलिए की गई क्योंकि वे निचली जातियों के साधु या योगियों की संगत में रहती है। मीरा के निर्मोही परदेसी कृष्ण जोगी और निराकार ब्रह्म ज्यादा प्रतीत होते हैं। यहाँ यह कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की व्याखया के बन्द तालों को खोलने की एक चाबी नारी के पास है, अफसोस हिन्दी आलोचना इस दिशा में उतनी गहराई से अभी तक नहीं उतरी है।

अब वर्ण के सवाल को लें, बच्चन सिंह लिखते हैं 'मथुरा जाकर कृष्ण का वर्गचरित्र बदल गया है। वे अहीर से यदुवंशी क्षत्रिय हो गए हैं। इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है।8 जीवन में जब वैचारिक और व्यावहारिक परिस्थितियों में परिवर्तन आता है, तो उसके साथ ही लोगों की मानसिकता, भाव-विचार और जीवन पद्धतियाँ भी बदलती हैं। मध्यकाल के सांस्कृतिक परिदृश्य को देखें तो समाजेतिहास के विकास में अलग-अलग धर्मों का, पुराने धर्म विश्वासों से सम्पर्क होकर जीवनादर्श की प्रकृति में परिवर्तन होने लगता है। रामायण-महाभारत के काल तक आते-आते भाव-विचार, स्वर्ग-कल्पना, मोक्ष दर्शन, रीति-नीति, देवी-देवता आदि की अवधरणाओं का विकास देखने को मिलता है। विचारधारा का यह परिवर्तन उपनिषदों में प्रत्यक्षतः दिखाई पड़ता है। डा. रामविलास शर्मा ने अन्यत्र लिखा है कि 'यदि भारतीय संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दें तो भारतीय साहित्य की आन्तरिक एकता टूट जाएगी।' इनमें इतिहास-पुराण के तत्व तो हैं ही, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र एवं अध्यात्म चिन्तन के रूप में निर्गुण-सगुण विचारधारा सम्बन्धी प्रभूत सामग्री भी देखने को मिलती है।

बच्चन सिंह मानते हैं कि तुलसी का मानस अध्यात्म रामायण से बहुत प्रभावित है। कई पुराणों में राम कथा वर्णित है। बौद्ध जातकों में एक जातक 'दशरथ जातक' है। जैन अपभ्रंश में कई ग्रंथ राम कथा से सम्बद्ध है।9 यह प्रदर्शित करता है कि मध्यकाल या उससे कुछ पहले के अधिकतर दर्शनों में रामकथा का प्रचलन था। यह इसलिए भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि निर्गुण मत ने निराकार ब्रह्म को 'राम' के नाम से याद किया और सगुण मत ने विष्णु के अलग-अलग अवतारों, कृष्ण और राम के रूप में उन्हें याद किया। तुलसी के मानस पर 'अध्यात्म रामायण' का प्रभाव हैं रमेशचन्द्र मिश्र लिखते हैं कि 'अध्यात्म रामायण' राम की सगुण कथा से सम्बद्ध होते हुए भी, निर्गुण-चेतना के तत्व-दर्शन को भली प्रकार निरूपित करता है।10 कबीर से शुरू होने वाली अत्यन्त विविध और लम्बी संत-परंपरा में तुलसीसाहब (गोस्वामी तुलसीदास नहीं) और शिवदयाल को छोड़कर शेष सभी संतों ने राम नाम के जप पर सबसे अधिक बल दिया है। जहाँ तक राम कथा का सम्बन्ध है कबीरदास आदि संत उसे एकदम स्वीकार नहीं करते, बल्कि रामकथा का विरोध करते हैं। ब्राह्मण श्रेष्ठता में अविश्वास करने वाले, वेद में आस्था न रखने वाले तथा वर्णाश्रम व्यवस्था को अस्वीकार करने वाले लोगों की परंपरा इस देश में काफी पुरानी है, यहाँ जिनका नेतृत्व कबीर करते हैं। कबीर के बाद और गोस्वामी जी के पहले के समय में ऐसे लोगों को संत कहा जाने लगा था। यदि ऐसा न होता तो नए सिरे से अतिरिक्त आग्रह के साथ गोस्वामी जी संतों पर ब्राह्मण, दाशरथि राम एवं वेद के प्रति आस्थाशील होने की शर्त न लगाते। उनके यहाँ भी यह पद प्रवृति सूचक अधिक है।

मध्यकाल में ब्राह्मण-राजपूत गठजोड़ के वर्चस्व के समय यद्यपि ब्राह्मण धर्म व्यापक रूप से अपना राजनीतिक प्रधन्य स्थापित कर चुका था तथापि बौद्धों, शाक्तों, शैवों आदि का एक बहुत बडा समाज ऐसा था जो ब्राह्मण और वेद के प्रधान्य को नहीं मानता था। सहजयान और नाथपंथ के अधिकांश साधु नीची कही जाने वाली इन्हीं जातियों वाले समाज से आए थे। 'इस्लाम' के रूप में आई सांस्कृतिक और राजनीतिक चुनौती ने सामन्ती परिवेश में सारे देश को दो प्रधान प्रतिस्पर्धी धार्मिक दलों में विभक्त कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप किनारे पर पडी हुई अनेक जातियों और सम्प्रदायों में हलचल पैदा हुई। राजनीतिक-आर्थिक कारणों से हो या तत्कालीन सामजिक सन्दर्भों में, समूह रूप में धर्म परिवर्तन इस कालावधि की विशेषता है। इतिहासकार तथा हिन्दी आलोचक भी इसे मानते हैं। लेकिन इनके अलावा भी एक विशाल जनसमूह ऐसा था जो न हिन्दू था न मुसलमान। इरफान हबीब ने भारतीय समाज के हिन्दूकरण की जो प्रक्रिया मध्यकाल में घटित बताई है, वह यहाँ सही जान पड ती है। कबीर के समय में हिन्दू-मुसलमान से भिन्न आस्था विश्वास और धार्मिक-दार्शनिक परम्परा वाले लोग इस देश में वर्तमान थे। सुल्तानों के दौर में जिन लोगों को दास बनाया गया था वे इन्हीं श्रमजीवी या तथाकथित निचली जातियों से सम्बद्ध थे। एक तरफ समूचा भारतीय समाज हिन्दू और मुसलमान दो धर्मों में विभक्त होने लगा, दूसरी तरफ दासों और व्यापार से जुडी जातियों और समूहों से कबीर का श्रोता समाज बना। लेकिन यह समाज डा. धर्मवीर के 'दलित समाज' से भिन्न था। क्योंकि पहले से कोई श्रमजीवी या 'दलित धर्म' अस्तित्व में नहीं था।

सगुणवादी तत्वचिंतकों और भक्तों की दृष्टि में निर्गुण और रुपातीत ब्रह्म भी भक्ति का विषय है, जबकि आचार्य शुक्ल मानते हैं कि 'भक्ति के लिए ब्रह्म का सगुण होना अनिवार्य हैं।' भगवान की लीला में एकान्त निष्ठा रखने वाले अवतारवादी सगुण तत्वचिंतकों और भक्तों ने ऐसा कुछ नहीं कहा है। भक्ति शास्त्र के प्रचीन ग्रन्थों में निर्गुण ब्रह्म को भक्ति का अविष्य नहीं कहा गया है। शैव-दर्शन में निर्गुण और अद्वैत ब्रह्म के प्रति भक्ति की बड़ी ही सुन्दर और उत्कृष्ट स्थापना मिलती है। उत्तर भारत में वैष्णव भक्ति के प्रसार को सामान्यतः बौद्ध धर्म के ह्रास तथा उसके हिन्दू-धर्म में विलय के साथ सम्बद्ध करके देखने का विशेष चलन है। बौद्ध धर्म से सीधे वैष्णव धर्म पर उतर आने का परिणाम यह होता है कि उत्तर भारत के इन धर्मों के मध्यवर्ती शैवों की योगमार्ग वाली कडी अछूती रह जाती है, जबकि तथ्य यह है कि बौद्धधर्म शैवों के नाथपंथ में विलीन हुआ था। गोरखनाथ, जिनका प्रभाव क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत तथा इसके आसपास के अन्य इलाकों में फैला था, शिव के अवतार माने जाते हैं। अपने विकास के अगले चरण में शैव सम्प्रदायों ने वैष्णव प्रभाव में आकर अद्वैतभाव की वैष्णव निर्गुणी भक्ति ('राम' जिसका सबसे बडा उदाहरण है) को रूप दिया। सन्तों की भक्ति और उनके निर्गुण राम को इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए।

सन्तों का राम न ज्ञानियों का अद्वैत ब्रह्म है, न भक्तों का सगुण ब्रह्म। निगुर्णियों का राम आवागम से उपर है। वह न जन्मता है, न मरता है। सहस्रों पृथ्वी और आकाशों में उसका प्रसार है। वह देश और काल से ऊपर है। जब कोई उसे दशरथ का बेटा कहता है तो उनका सवाल है कि दशरथ को किसने जन्मा? स्वयं दशरथ का पिता कहाँ से आया? भला जो कर्मों से बँध हुआ है वह कर्त्ता कैसे हो सकता है? कबीर तथा दूसरे सभी सन्तों का पक्का विश्वास था कि दशरथ के बेटे राम का बखान करने वाला त्रिलोक्य राम नाम के असली मर्म से परिचित नहीं है। यहीं पर निर्गुण साहित्य की आलोचना का सारा द्वन्द्व फँसा हुआ है। कोई कबीर को वैष्णव सिद्ध करना चाहता है, कोई शैव, कोई इस्लाम का प्रचारक, कोई अज्ञात दलित र्ध्म का उद्धारक। कबीर का व्यक्तित्व और उनका ब्रह्म इतना बहुआयामी है कि जब कोई आलोचक उसे एक खाँचे में फिट करने का प्रयास करता है तो कबीर उसके बाहर दिखाई देते हैं।

राजदेव सिंह का मानना है कि जहाँ तक राम और रामनाम का सवाल है, राम को अवतार मानने और उन्हें विष्णु से अभिन्न समझने की धारणा ईसापूर्व की पहली शताब्दी में प्रतिष्ठित हो गई थी। उपलब्ध सूचनाओं के हिसाब से वाल्मीकि ने आदिरामायण की रचना ईसापूर्व की तीसरी शताब्दी में की थी। आदिरामायण इस बात का प्रमाण है कि इसकी रचना के समय तक राम को अवतार नहीं माना गया था, क्योंकि आदिरामायण में उनको अवतार माने जाने का संकेत नहीं मिलता, बल्कि इसके विपरीत आदिरामायण के प्रधनपात्रा इस बात से परिचित नहीं है कि राम अवतार है।11 राम को अवतार मानने की धरणा ईसापूर्व की पहली शताब्दी में प्रतिष्ठित हो गई। आगे की शताब्दियों में अवतार और पूज्य के रूप में राम की महत्ता उत्तरोत्तर बढ़ती गई थी। राजदेव सिंह आगे लिखते हैं कि संतमत नाथमत का उत्तराधिकारी है। स्वयं नाथमत महायान बौद्धधर्म से पर्याप्त मात्रा में प्रभावित हैं, यह भी विदित है। विद्वानों ने पाया है कि उत्तरकालीन वैष्णव भक्तिवाद भी महायानियों की भक्ति का ही विकसित रूप है। इस प्रकार नाथपंत, संतमत और उत्तरकालीन वैष्णव धर्ममत महायान बौद्धधर्म से समान रूप से प्रभावित और सम्बद्ध है। महायान बौद्धधर्म में पूजित प्रज्ञापरमिता, अवलोकि-तेश्वर, मंजुश्री आदि देवी-देवताओं की मूर्तियों से वैष्णवों के परमाराध्य वासुदेव और लक्ष्मी की मूर्तियों में विलक्षण रूप से समानता पाई जाती है, जो इनके आपसी सम्बन्धों को प्रमाणित करती है।12

डा. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर ने माना है कि यद्यपि ईस्वी सन्‌ के प्रारम्भ से ही राम विष्णु के अवतार माने गए थे, किन्तु राम भक्ति की विशेष रूप से प्रतिष्ठा ग्यारहवीं शताब्दी के लगभग ही आरम्भ हुई थी।13 ग्यारहवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी के बीच पूर्वी प्रदेशों में स्वरूप ग्रहण करने वाला वैष्णवधर्म अपने प्रारम्भिक रूप में लोकधर्म ही अधिक था और बौद्धों तथा शैवों की रीति-नीति, आस्था-विश्वास आदि से अनेक तत्वों को स्वायत्त करके कल्पित-गठित हुआ था। कहा जा सकता है कि यह काल का ही दबाव था कि कबीर को अपने ब्रह्म को 'राम' कहकर पुकारना पड़ा। तत्कालीन समाज की भिन्न सांस्कृतिक टकराहटों के बीच इसी लोकधर्म से कबीर ने अपने अनश्वर राम को निर्गुण के रूप में पहचाना और सूर-तुलसी ने अवतारी सगुण रूप में। दोनों प्रवृत्तियों का परिवेश और लक्ष्य अलग-अलग था। 'लोकधर्म' शब्द का प्रयोग शुक्ल जी करते हैं। नामवर सिंह 'दूसरी परम्परा की खोज' करते हुए लिखते हैं जैसा कि 'तुलसीदास' नामक पुस्तक के 'लोकधर्म' शीर्षक अध्याय से स्पष्ट है कि शुल्क जी का 'लोकधर्म' बहुत कुछ वर्णाश्रम धर्म ही है 'भक्ति के नाम पर वेद-शास्त्रों की निन्दा करने वाले' और 'आर्य धर्म के सामाजिक तत्व को न समझकर लोगों में वर्णाश्रर्म धर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न करने वाले 'नीच जातियों के निर्गुणपन्थी भक्तों की जैसी भर्त्सना शुक्ल जी ने की है, उससे स्पष्ट है कि शुक्ल जी का 'लोकधर्म' वस्तुतः 'आर्य शास्त्रानुमोदित' सनातन धर्म ही है।14 आ. शुक्ल की वर्ण सम्बन्धी 'टिप्पणियाँ' इस बात को साबित करने का पर्याप्त अवसर भी देती है कि उनके 'लोकधर्म' को 'आर्य शास्त्रानुमोदित सनातन धर्म' कहा जा सके। इसके विपरीत आ. द्विवेदी का 'लोकधर्म' वह है जिसमें 'बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर लोकधर्म में घुल-मिल रहा था, तो स्पष्ट है कि सामान्य जन में प्रचलित टोना, टोटका, तन्त्र-मन्त्र, मिथक आदि विश्वासों को ही, उसके 'अकिंचित', 'निकृष्ट' और 'निरर्थक' होते हुए भी, वे लोकधर्म मानते हैं।15

लेकिन नामवर सिंह ने स्पष्ट किया है कि द्विवेदी जी भूमिका' में यह कहते हैं कि मतों, आचार्यों, सम्प्रदायों और दार्शनिक चिन्ताओं के मानदन्ड से लोक चिन्ता को नहीं मापना चाहता बल्कि लोक चिन्ता की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ।16 डा. रामविलास शर्मा ने इसे और स्पष्ट करते हुए लिखा है कि सन्त-साहित्य भारतीय जीवन की अपनी परिस्थितियों से पैदा हुआ था। उसका स्रोत बौद्ध धर्म या इस्लाम में - या हिन्दूधर्म में ढँूढना सही नहीं है। इन धर्मों का उस पर असर है लेकिन ये उसके मूल स्रोत नहीं है। मलिक मुहम्मद जायसी कुरान के भाष्यकार नहीं है, न कबीर और दादू त्रिपिटकाचार्य हैं, न सूर और तुलसी वेद, गीता या मनुस्मृति के टीकाकार हैं। सन्त साहित्य की अपनी विशेषताएँ हैं जो मूलतः किसी प्राचीन धर्मग्रन्थ पर निर्भर नहीं है।17 असल में कबीर के समय में सभी धर्मों का पुरोहित वर्ग अपने ही धर्म को 'सच्चा' बता रहा था, इनमें मौलवी, पण्डित सभी तरह के पुरोहित थे। लेकिन कबीर ने जब प्रचलित सभी दर्शनों को शोषित जनता की जरूरतों के समकक्ष परखा तो इनमें से कोई भी उनके काम का न नजर आया। कबीर को यह चेतना उनके 'काल' अर्थात्‌ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों से प्राप्त हुई थी। उनके समाज (कारीगरी तन्त्र) में 'हिन्दू', मुसलमान, बौद्ध, जैन, योगी आदि सभी थे। इसलिए उनके 'राम' का निर्गुण होना अनिवार्य था।

रामविलास शर्मा ने आगे लिखा है ''सन्त साहित्य से पहले गाँव-गाँव और जनपदों में अपने धर्मिक रीति-रिवाज, अपने अन्धविश्वास थे। थोड़े से विद्वान हिन्दू धर्म या इस्लाम की मूल पुस्तवें पढ कर भले ही अपने को सच्चा हिन्दू और मुसलमान मानते रहे हों, लेकिन अपने दैनिक जीवन में जनता हर दस कोस पर धर्म को एक स्वतन्त्र रूप देती चली गई थी। वास्तव में यह बात अभी भी सामन्ती अवशेषों के साथ भारतीय जीवन में बाकी है। कबीर के परिवेश ने उन्हें यह चेतना तो दे दी कि पूर्वजन्म, अवतारवाद, धर्मिक कट्‌टरता, जाति व्यर्थ है। लेकिन निर्गुण 'राम' की शरण में जाना तभी सकता' जब जनता संगठित होती, अपनी एकता की शक्ति पहचानती, सामाजिक संघर्ष के दौर में अपने वास्तविक शत्रुओं को, उनकी नीति, उनके शोषण और अत्याचार को पहचानती,18 लेकिन जनता असंगठित है, उसकी राजनीतिक चेतना अभी पूरी तरह नहीं निखरी है। यह उनके समय के जन-जीवन की सीमाएँ हैं।

कबीर के धर्म और जाति सम्बन्धी चिन्तन के अलावा जो विशाल साहित्य है उसमें जन-जीवन में उतरते नए जीवन मूल्यों और सामन्ती समय की जकड़न का द्वन्द्व साफ झलकता है। निर्गुणियों ने अपने राम को सत्यस्वरूपी कहा है। जिस तरह सत्य की कोई सीमा नहीं है उसी तरह उनके सत्यस्वरूपी राम की भी कोई सीमा नहीं है। अतः जगत में जो कुछ भी सत्य है, शिव है, रमणीय और आकर्षक है वह राम है। वैष्णव सन्तों की श्रद्धा के पात्र है, सो भी इसलिए नहीं कि वे सगुणवादी या निर्गुणवादी है। वे केवल अपने सत्याचरण, निर्वैरता और विषयों से उपर उठकर रहने के कारण ही सन्तों की श्रद्धा और दोस्ती के अधिकारी हैं। वैष्णवों और निर्गुणियों के बीच थोडी सी समानता बतलाने से ही कुछ उत्तेजित आलोचक भड क जाते हैं। उनकी बुद्धि वैष्णव + उपनिषद्‌ + स्मृति + वेद = ब्राह्मण की दिशा में घूम जाती है। लेकिन मध्यकालीन समाज का उपरोक्त सारा अध्ययन यह बताता है कि भक्तिकाल के उद्‌भव के समय में कोई भी धर्म या दर्शन अपने शुद्ध रूप में बना नहीं रह सकता था। दिक्कत यह भी है कि निर्गुण का अध्ययन करते हुए कतिपय आलोचक कबीर से आगे की लम्बी परम्परा के अध्ययन में भी रूचि नहीं दिखाते और कबीर पर ही टिक जाने से नुकसान यह होता है कि निर्गुण साहित्य के विकास के उतार-चढावों को आलोचना के दायरे में नहीं लाया जा पाता।

सन्तों को धूल से लेकर सुमेरु तक, जलचर, थलचर, और नभचर से लेकर अंडज, पिंडज, जंगम और स्थावर तक, जहाँ भी निर्वैरता, परोपकारिता, दयाशीलता, कारुणिकता, शरीर और मन की वश्यता, जिस किसी में भी ये गुण नजर आ जाए वे सहज भाव से उसे 'राम' मान लेते हैं। उन्हें लगता है कि कण-कण में वर्तमान राम जैसे उस पदार्थ, जीव, जन्तु या मनुष्य विशेष में साकार हो गया। ''राम की खोज में बन-बन भटकते हुए कबीर को उनका राम 'राम सरीखे' जन अर्थात्‌ राम के गुणों वाले व्यक्ति में साकार मिल गया था। दशरथसुत राम सन्तों की राय में परब्रह्म राम नहीं, 'राम सरीखे जन' थे।19 हिन्दू हो या मुसलमान, सगुणवादी हो या निर्गुणवादी, रामभक्त हो या कृष्ण भक्त, दास्य भाव से भक्ति करते हों या माधुर्यभाव से, मध्यकाल के समस्त 'भक्तों' और 'सन्तों' में इस बात पर कोई मतभेद नहीं है कि 'जिन्ह के रही भावना जैसी, हरि मूरति देखी तिन तैसी।' निश्चय ही यह मान्यता भक्तिशास्त्र की केन्द्रीय मान्यता है। भक्तिकाल से पहले ऐसा नहीं था। अलग-अलग धर्ममत परस्पर विरोध में काफी उग्र थे। अपने स्वभाव के अनुसार सन्तों ने अपने राम में गुणों का दर्शन किया है। सन्त निर्गुण शब्द को अभावसूचक या निषेधात्मक अर्थ में नहीं स्वीकारते। उनका राम इस अर्थ में निर्गुण है कि वह सत्व, रज और तम नामक गुणों की परिधि में अँट नहीं पाता, अन्यथा वह गुणनिधान है, सद्‌गुण-सिन्धु है। वस्तुतः जगत में जो गुण दिखाई देते हैं वे उसी निर्गुण राम के गुण हैं। अवगुण माया है और गुण ब्रह्म, सो भी इसीलिए कि वह ब्रह्म राम गुणस्वरुपी है।

महाराष्ट्र के बारकरी सन्तों ने ब्रह्म के निर्गुण और सगुण दोनों रुपों को स्वीकारा है और उन्होंने ब्रह्म के दोनों रुपों की उपासना एकनिष्ठ श्रद्धा से की है। महाराष्ट्र में निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति की परस्पर स्वतन्त्र और विरूद्ध धाराएँ नहीं बनी। हिन्दी की तरह मराठी में 'संत' और 'भक्त' शब्द भिन्नार्थक नहीं है, वहाँ इनका पर्यायवाची की तरह प्रयोग होता हैं ''महाराष्ट्र की जातियों के अध्ययन में रिजली ने पाया है कि मराठे और महाराष्ट्र की अछूत जाति महार, दोनों मूलतः एक ही कुल के हैं। इन दोनों में इतनी अधिक एकरूपता है कि मराठों में शायद ही कोई ऐसा कुल हो जो महारों में न मिलता हो और महारों में शायद ही कोई ऐसा कुल हो जो मराठों में न हो। इसी तरह अपने नृतत्त्व शास्त्रीय अध्ययन में ह्यूरोज ने पाया है कि पंजाब (और हरयाणा) के जाटों और अछूत समझे जाने वाले चमारों में नस्ली हिसाब से पूरी समानता है। दोनों के गोत्रादि एक समान है।20 पुराने जमाने से पंजाब शैवों, शाक्तों और नाथयोगियों का गढ़ रहा है। इसी कारण अवतारवादी सगुण वैष्णव भक्ति का प्रसार वहाँ नहीं हो सका। नस्ली एकता के बावजूद भिन्न जातियों के निर्माण में अर्थतन्त्र ने भी निश्चित रूप से भूमिका निभाई होगी। बहरहाल, हिन्दी प्रदेश की सांस्कृतिक स्थिति इससे भिन्न रही है। महाराष्ट्र की बिहट्‌ठल भक्ति में वैष्णवों और शैवों के विरोधभाव को मिटाया। इससे मिलता-जुलता काम उत्तर भारत में तुलसी दास और उनके 'मानस' ने किया।

मध्यकालीन धर्मसाधना के साहित्य से यह बात साफ-साफ समाने आती है कि ईसा की तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में वैष्णवभक्ति के मार्ग में योग और शिव के प्रति आस्थाशील समाज सबसे बड़ी बाध थे। यह ऐतिहासिक सत्य है कि युक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) के, और मध्यप्रदेश के उन भागों में जहाँ की भाषा हिन्दी है, वैष्णव मतवाद के प्रचार के पूर्व सर्वाधिक प्रचलित मतवाद शैव धर्म था। 'हठयोगी नाथों, वज्रयानियों और सहजयानी बौद्धों, त्रिपुरा सम्प्रदाय के तान्त्रिकों, वीराचारियों, दत्तात्रोय के सम्प्रदायवालों, शैवों और परवर्ती सहजियों की इस साधना भूमि में अपनी जडे जमाने में वैष्णव आचार्यों को पर्याप्त संघर्ष करने पडे थे। इन बहुविध संघर्षों में सबसे बडा संघर्ष ब्रह्म के निर्गुण और सगुण रूप को लेकर था। सूर हों या तुलसी या कोई भी सगुण भक्त कवि, सबके साहित्य में इस संघर्ष के दस्तावेज आसानी से मिल जाते हैं। सूर की गोपियों द्वारा उपहसित उद्धव तथा 'मानस' के सती, पार्वती और गरुड, राम की भगवत्ता के प्रति जो सन्देह व्यक्त करते हैं, वे इन्हीं समाजों द्वारा मुखरित सन्देह है।21 इन कवियों का हथियार था राम (या उनके अवतार) का चरित्र और लक्ष्य था, व्यवस्था से शोषित जनता का एकीकरण। अन्य वर्गों ने इस प्रक्रिया को अपने फायदे में इस्तेमाल करना चाहा हो, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन जनता में प्रचलित निर्गुण राम के चारित्रिक गुणों को छोड देने से सगुण राम का व्यक्तित्व निखर नहीं सकता था।

दिनेशचन्द्र सेन के हवाले से राजदेव सिंह कहते हैं कि बंगाल के इतिहास से यह बात अलग नहीं की जा सकती कि बौद्ध धर्म का ह्रास होते ही महायान मत से विकसित नाथपंथ वैष्णवों में शामिल हो गए। इसी प्रकार परकीया प्रेम को अपनी प्रेममूलक सहज-भावना का प्रधान उपाय समझने वाले आउल-बाउल आदि अनेक सहजिया पंथ भी सोलहवीं शताब्दी में नित्यानन्द के वैष्णव झण्डे के नीचे एकत्र हुए थे। इन्हीं नित्यानन्द को महाप्रभु चैतन्य ने अपने सम्प्रदाय में आमन्त्रित किया था और यहीं से गौडीय वैष्णव धर्म ने नवीन रूप धारण किया था। बारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच बंगाल और उड़ीसा में प्रचलित 'धमाली' नामक लोकगीत वैष्णव कवियों की प्रेमसाधना का पता तो देते ही हैं, योगी जाति से उनका गहरा सम्बन्ध था, इसे भी व्यक्त करते हैं और इस प्रकार यह मानने का संगत आधार देते हैं कि जिसमें नाथों की बिन्दुसाधना ने इन्द्रिय-निग्रह को और रामानन्द ने रामनाम को प्रविष्ट कराके उसे नया रूप दे दिया।22 हिन्दी साहित्य के परवर्ती भक्ति-गीतों की परम्परा जयदेव के गीतों तथा उसी प्रकृति वाले पूर्ववर्ती धमाली गीतों से जुडी हुई है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सूर, तुलसी आदि सगुण वैष्णव भक्तों तथा कबीर आदि निर्गुण रामभक्तों की भक्ति का आदिरुप एक ही लोकधर्म से विकसित हुआ था। इन कवियों की अलग-अलग धाराओं (परिवेश) में प्रसारित होने वाली भक्ति भारतीय साधना की जीवनी शक्ति को विभिन्न रूपों में प्रकट करती है। रामविलास शर्मा ठीक ही कहते हैं कि 'अपने दैनिक जीवन में जनता हर दस कोस पर धर्म को एक स्वतन्त्र रूप देती चली गई थी।'23

आदिसंत कबीर तथा उनके परवर्ती सन्तों ने आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि नाथपंथी शैव योगियों को अपने मत का आचार्य माना है। राजस्थान में पन्द्रहवीं शताब्दी तक नाथपंथियों एवं शाक्तों का प्रभाव रहा है। सम्भवतः जयचन्द की पराजय के बाद जोधपुर में स्थापित होने वाली गाहड़वार (राठौर) राजपूतों की शाखा के साथ वैष्णव भक्ति का प्रवेश राजस्थान में हुआ था और बाद में मेहता में उनकी शाखा स्थापित हुई थी। इसी मेहता वंश में मीरा का जन्म हुआ था। मीरा के भजनों में किसी ऐसे गुरु की चर्चा आती है जो नाथपंथी साधु जान पड ते हैं। योगियों, संतों और वैष्णवों के सम्मिलित प्रभाव का संकेत देने वाले मीरा के पदों में गोपीवल्लभ सगुण कृष्ण के साथ-साथ ही 'निर्मोही परदेसी जोगी' और निर्गुण निराकार ब्रह्म के प्रति जो प्रीति और आराध्य भाव व्यंजित-कथित है वह, तथा राजस्थान में रामानन्द के शिष्य कृष्णदास पयोहारी के प्रभाव में आने वाली, जयपुर के पास स्थित गलता नामक स्थान वाली नाथयोगियों की गद्दी पर पयोहारी जी के शिष्य कील्हदास द्वारा योगमार्गी भक्ति का प्रचार, महाराणा कुम्भा (१४३३-१४६८ ई.) की रानी झाली द्वारा निर्गुणमार्गी संत रैदास की शिष्यता स्वीकारना आदि अन्य अनेक बातें हमारी उक्त धारणा को पुष्ट करती हैं।24

नामवर सिंह ने लिखा है कि ''लोकधर्म साधारण जनों के विद्रोह की विचारधारा है। इसे 'लोकधर्म' कहने का एक कारण तो यह है कि यह उच्चवर्गों के 'शास्त्र' के समान सूक्ष्मातिसूक्ष्म तर्क पद्धति से सम्पन्न तथा व्यापक विश्वदृष्टि के रूप में विकसित कोई सुसंगत और सुव्यवस्थित 'विचार प्रणाली' नहीं है। दूसरा कारण यह है कि यह पूँजीवादी समाज के बीच निर्मित किसी एक सुनिश्चित वर्गचेतन वर्ग की विचारप्रणाली नहीं, बल्कि सामन्ती युग के असंगठित किसानों और दस्तकारों के विविध वर्गों, उपवर्गों की मिली-जुली भावनाओं का पुंज है। शास्त्रवंचित विविध दलित जातियों और जनसमूह की मानसिक अभिव्यक्ति होने के कारण इस 'लोकधर्म' का अव्यवस्थित और अनिश्चित होना अनिवार्य है।25 बात सही है लेकिन क्या 'विचार प्रणाली', आर्य-शास्त्रानुमोदित या वर्ण-व्यवस्था के सन्दर्भ में अव्यवस्था और अनिश्चितता या कहें अन्तर्विरोध, सगुण भक्ति में नहीं है। लेकिन मुक्तिबोध के सवालों - 'क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नही है कि रामभक्ति शाखा के अन्तर्गत, एक भी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण कवि निम्नजातीय शूद्र वर्गों से नहीं आया! क्या यह एक महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि कृष्ण भक्ति शाखा के अन्तर्गत रसखान और रहीम जैसे हृदयवान मुसलमान कवि बराबर रहे आए, किन्तु रामभक्ति शाखा के अन्तर्गत एक भी मुसलमान और एक भी शूद्र कवि, प्रभावशाली और महत्वपूर्ण रूप से अपनी काव्यात्मक प्रतिभा विशद नहीं कर सकता? ... क्या कारण है कि तुलसीदास भक्ति आन्दोलन के प्रधान (हिन्दी क्षेत्र में) अन्तिम कवि थे?26 - में नामवर जी फँस जाते हैं।

उच्चवंशी - उच्चजातीय वर्गों द्वारा भक्ति आन्दोलन पर प्रभुत्व जमा लेने की बात को परखने से पहले इस प्रक्रिया को ही थोड़ा और परखना चाहिए। यहाँ हम सांस्कृतिक अन्तर्विरोधें की चर्चा कर रहे हैं। हमने देखा वाल्मीकि के राम आगे चलकर अवतारी राम बन गए। लेकिन क्या तुलसी के राम वाल्मीकि के राम जैसे ही हैं? उत्तर भारत में उस समय योगियों और शैवों का बोलबाला था। गोरख 'राम' नाम का गुणगान कर रहे थे। ''गोरखबानी में जहाँ राम का जप करके जीभ द्वारा राम रसायन को चखने की बात बताई गई है, या द्वन्द्वातीत राम बनने के लिए राम मन को आदेश दिया गया है या राम में रमने की बात कही गई है, वहाँ राम और परमशिव अभिन्न हैं।27 उत्तर भारत में रामानन्द के बहुत पहले से शिव के प्रति आस्थाशील समाजों में निर्गुण राम की अद्वैत भक्ति प्रचलित थी। ये लोग गुणतीत शिव और निर्गुण तत्व के उपासक थे। वर्णाश्रम व्यवस्था के हिसाब से अत्यन्त नीची जातियों से सम्बद्ध थे और इनकी उपासना ध्यान और समाधि के द्वारा होती थी। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था और राज्य द्वारा उसके निरंकुष शोषण के विरूद्ध 'जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी' के तर्ज पर नैतिक तथा मानवीय गुणों से भरपूर और प्रजा को सुखी रखने वाले राजा की कामना के रूप में निराकार के गुणों को साकार करना, ऐतिहासिक आवश्यकता महसूस हुआ।

जनता में प्रचलित शैव धर्म को देखते हुए यह अनायास नहीं है कि 'मानस' के बालकाण्ड के आरम्भ में ही शिव-पार्वती-सम्वाद के माध्यम से गोस्वामी जी ने उन 'अधमनरों' को बहुत भला बुरा कहा है जो अपने को निर्गुणराम का भक्त कहते हैं और दशरथसुत राम को ब्रह्म नहीं मानते। उत्तरकाण्ड के अन्त में पार्वती ने शिवजी से पूछा है कि इतने बड़े रामभक्त और ज्ञानी होने के बावजूद कागभुशुण्डि कौआ क्यों हैं? पूर्व जन्म की कथा कहते हुए बताया गया है कि नीच जाति में पैदा होने और सगुण राम का विरोधी होने के कारण 'शिव' के ही शाप से उन्हें सर्प योनि मिली है। अनेक योनियों में जन्मते-मरते हुए अंत में वे ब्राह्मण वंश में पैदा हुए जहाँ निर्गुणराम का विरोधी होने के कारण लोमशमुनि के शाप से उन्हें कौआ बनना पडा। जातीय संघर्ष यहाँ साफ दिखाई पड ता है। सूर की गोपियों की तरह इस संघर्ष में यहाँ भी 'नारी' (पार्वती) मौजूद है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सगुणराम के विरोधी को खुद शिव, जो निर्गुणियों की परम्परा के ईश्वर हैं, शाप देते बताए गए हैं, तो निर्गुणराम का विरोधी भी शाप का अधिकारी है। 'रामनाम' मात्र का विरोध गोस्वामी जी को मंजूर नहीं। कागभुशुण्डि कथा के माध्यम से गोस्वामी जी ने निर्गुण और सगुण रामभक्ति के पीछे कार्यरत जातीय आधारों का अच्छा विवरण प्रस्तुत किया है। सन्तों में नाम जप की बहुत मान्यता है और तुलसी के राम का एक बार नाम लेने से ही सभी क्लेशों से मुक्ति मिल जाती है। सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद तुलसीदास राम के सामने सबको एक मानते हैं। अफसोस हिन्दी आलोचना के कई 'कबीर खेमे' और 'तुलसी खेमे' के आलाचेकों को यह स्वीकार नहीं।

लेकिन फिर भी गोस्वामी जी अयोध्या के आसपास बसी हुई तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल, कलवार आदि नीची जातियों में पैदा होने वाले निर्गुण राम भक्त जो पुराणों और वेदों को कोई महत्व नहीं देते, जो अनेक जप, तप और व्रतों का अनुष्ठान करते थे, व्यासगद्दी पर बैठकर धर्मोपदेश देते थे, ब्राह्मणों से विवाद करते थे कि क्या हम तुमसे कम हैं, जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। इस तरह जो ब्राह्मणों को फटकारते और आँखें दिखाते थे, उन्हें ज्ञान की सीख देते थे, ब्राह्मणों की तरह जनेऊ पहनते थे, दान लेते थे, ब्राह्मणों से अपनी पूजा करवाते थे और भक्तिमार्ग पर न चलकर अनेक पंथों की स्थापना करते थे। 'नीची जाति' के ऐसे लोगों की बहुत आलोचना की गई है। तुलसीदास वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करते थे यह उनका 'मानस' कई जगह साबित करता है। वे समाज को व्यवस्था में बाँधने वाले चिन्तक हैं। काकभुशुण्डि के ही सन्दर्भ में उन्होंने कहा –
तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयऊँ सूद्र तनु पाई।
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्र बुद्धि उरू दंभ बिसाला॥ - मानस उत्तरकांड -
'नीच' जात का काकभुशुण्डि' धन, मद, मत्त' होकर 'परम वाचाल' और 'उग्र बुद्धि' हो गया है। तुलसी को ब्राह्मण होकर भी जीवन भर कष्ट झेलने पड़े और ये 'नीच जात' धन, मद में मस्त हैं। ऐतिहासिक अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि व्यापार से जुडा 'नीची जातियों' का एक तबका इस समय में सम्पन्न हुआ था। अब यदि दलितों पर सदियों से होते आए शोषण का विरोध और उन्हें सामाजिक न्याय दिलाने वाला कोई व्यक्ति यह कहे कि अब दलितों को सवर्णों के साथ वही सलूक करना चाहिए जो सवर्णों ने दलितों के साथ किया। तो उपरोक्त ब्राह्मणों को फटकारने, आँखें दिखाने, उनसे अपनी पूजा करवाने वालों पर तुलसीदास की नाराजगी समझने का प्रयास किया जा सकता है। इतिहास हमें यह भी बताता है कि मुगल या उससे पहले की 'इस्लामी सत्ता' ने भारतीय समाज के इस सांस्कृतिक मतभेद में किसी प्रकार का सकारात्मक या नकारात्मक हस्तक्षेप नहीं किया था। हाँ इस बात को कोई नहीं झुठला सकता कि तुलसी, वर्ण-व्यवस्था के समर्थक थे, लेकिन इस विखंडित भारतीय समाज को एक सूत्र में बाँधना उनका लक्ष्य था। यह उनकी और उनके समय दोनों की सीमा थी कि इस समाज की व्यवस्था क्या हो, इस प्रश्न का जवाब उन्हें वर्णगत समाज में ही मिला। किन्तु समय ने कुछ जीवन मूल्यों को तब तक प्रतिष्ठित कर दिया था।

मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का इतिहास ही नहीं मध्यकालीन भारत का इतिहास भी इस तथ्य का समर्थन करता है कि नीची और ऊँची या अवर्ण और स्वर्ण जातियों का पारस्परिक संघर्ष उनके भिन्न जातीय संस्कारों का परिणाम था, जिसे तत्कालीन राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था ने और अधिक तीखा बना दिया था। 'गोस्वामी जी ने अद्यम और दलित जातियों में उत्पन्न होने वाले जिन निर्गुण राम भक्तों को जी भरकर कोसा है वे इसी राजनीतिक-आर्थिक-व्यवस्था के कारण धन मद मत्त और वाचाल हुए थे, श्रुतिसम्मत हरिभक्ति-पथ को छोड़कर नए-नए पंथों की स्थापना की थी और वर्णाश्रम धर्म तथा वेदप्रामाण्य को गहरी चुनौती दी थी। कबीर आदि निर्गुण भक्तों के काव्य में सवर्ण जातियों में प्रचलित सगुण रामभक्ति के प्रति जो उद्धत विरोध मिलता है, उसका कारण यही जातीय पृष्ठभूमि है। निर्गुण रामभक्ति और निर्गुण रामभक्तों को जिस हठ और उग्रता से सगुण भक्तों ने अस्वीकार किया है उसकी पृष्ठभूमि भी उक्त जातीय आधार ही है।28 भक्तिकाल के इस जातीय संघर्ष के आधार पर ही बच्चन सिंह वर्ण के आधार पर ही भक्तिकाल को व्याखयायित करने का आग्रह करते हैं। परन्तु भक्तिकाल या उक्त कवियों ने ऐतिहासिक विकास क्रम में इस जातीय संघर्ष को जनता के स्तर पर मिटाने का प्रयास किया था। इस प्रक्रिया को केवल वर्ण के आधार पर व्याखयायित नहीं किया जा सकता, इसके लिए तत्कालीन समाज के वर्गीय ढाँचे को भी समझना होगा।

'मानस' में गोस्वामी जी ने राम के जिस निर्गुण रूप को 'अति सुलभ और सर्वज्ञात बताया है।29 उसके गुणों को अतिसुलभ तथा सर्वज्ञात बनाने में कबीरदास एवं उनके समधर्मी सन्तों का पूरा योगदान था, इसे भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। परन्तु इस निर्गुण को पहचानना सूरदास या तुलसीदास आदि ने सगुण की अपेक्षा अधिक दुरूह अवश्य बताया है। लेकिन सगुण भक्तों ने निर्गुण ब्रह्म को भक्ति का अविषय नहीं कहा है। गोस्वामी जी निर्गुण और सगुण को एक और अभिन्न मानते हैं। उनके मत से मूलतः ब्रह्म निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा ही है। भक्तों के प्रेमवश ही वह सगुण बनता है।30 साखी, सबदी और दोहों के माध्यम से भक्ति का निरुपण करने वाले कबीर आदि वेद-पुराण के निन्दकों को गोस्वामी जी ने भक्त कहा है।31 संतों ने जिन जीवन मूल्यों पर बहुत जोर दिया है वे तुलसी के राम की चारित्रिक विशेषता बन गए हैं। दिक्कत यह भी होती है कि कतिपय आलोचक सिर्फ 'रामचरितमानस' के आधार पर ही तुलसी की विचारधारा को पकड़ने की कोशिश करते हैं। इसके अलावा तुलसी की अन्य रचनाओं विनयपत्रिका, कवितावली, दोहावली आदि में उनकी विचारधारा अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत होती है। 'मानस' में ही वर्ण व्यवस्था का समर्थन करने वाले तुलसी निषाद, शबरी, वानर सेना आदि से राम का जो सम्बन्ध दर्शाते हैं वह तत्कालीन समाज के निम्न वर्णों (वर्गों) के प्रति नजरिए के बदलाव को दर्शा देता है। तुलसी के समय तक समाज व्यवस्था भी काफी स्पष्ट हो चली थी तभी वे कह पाते हैं कि 'जासुराज प्रिय प्रजा दुखारी। ते नृप अवसि नरक अधिकारी।' किसानी, व्यापार, बेरोजगारी, दरिद्रता आदि का कारण 'दारिद-दसानन' के रूप में पहचानना और आम जनता को संगठित करने का प्रयास तुलसी के यहाँ काफी निखर कर आया है। इस 'दसानन' को अपदस्थ करके 'राम' को स्थापित कर 'रामराज्य' लाना तुलसी की विचारधारा है। जो समय की सीमाओं के साथ उनके चिन्तन में प्रतिफलित होती है।

असल में यही समय की सीमा भक्तिकाल के हर कवि में दर्शायी जा सकती है। कबीर को उनकी तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद नारी विरोधी और रहस्यवादी साबित करने का प्रयास किया जा सकता है, होता है। सूरदास को नारी के सबसे बड़े हितैषी तथा कृषक जीवन को व्यक्त करने वाले सशक्त कवि होने के बावजूद आर्थिक-सामाजिक चिन्तन से दूर साबित किया जा सकता है। तुलसी को वर्ण व्यवस्था का कट्‌टर समर्थक कहा जा सकता है। परन्तु ऐसा अध्ययन वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता, व्यक्ति के विचार और उसकी मानसिक बुनावट को उसके समय और पारिस्थितियों के बीच जाकर ही समझने का प्रयास होना चाहिए न कि अपने समय के अन्तर्विरोधों को इतिहास पर ज्यों का त्यों लाद कर अपने निष्कर्षों को स्थापित करने की जि द करनी चाहिए। आज भक्तिकाल के सभी कवियों पर इसी तरह का आक्षेप दिखाई पड ता है। यह एक तरफ इतिहास को विकृत करने जैसा है तथा दूसरी ओर वर्तमान और भविष्य को कुंठाग्रस्त करने के बराबर है।

समस्या शुक्ल जी के भक्तिकालीन इतिहास लेखन के 'पैटर्न' में फँस जाने की है। सिर्फ 'राम' के नाम के साथ जीवन जीने वाले निर्गुण रामभक्त कवि रामभक्ति शाखा से बाहर है। निर्गुण-सगुण के बँटवारे में मीरा अँटती नहीं है। सामाजिक-आर्थिक अन्तर्विरोध भक्तिकाल के अध्ययन में पीछे छूट जाते हैं। सांस्कृतिक अन्तर्विरोध मुखय बन जाते हैं। मध्यकालीन समाज का ढाँचा समग्रता में समझ नहीं आता। मध्यकाल में समाज को बाँटने वाली प्रवृत्तियाँ हमारे समय में भी वही भूमिका और अधिक मजबूती से निभाने लगती है, शोषित जनता की वर्गीय एकता बाधित होती है। नारी समूचे अध्ययन में उपेक्षित हो जाती है। सवर्ण-अवर्ण का बटँवारा शोषणकारी व्यवस्था को स्थिरता बनाए रखने का हथियार देता है। असल में सांस्कृतिक अन्यायों का हल निकालने वाली, सामाजिक न्याय को मजबूती से उजागर करने वाली दृष्टि, वैकल्पिक व्यवस्था के लिए शोषित जनता की व्यापक एकता स्थापित करने का लक्ष्य और रचनाकार की सही भूमिका को पहचानने वाला नज़रिया ही भक्तिकाल के सही सन्दर्भों को रेखांकित कर सकता है। मुक्तिबोध के सवालों के सही जवाब इसी ढाँचे में दिए जा सकते हैं। डा. धर्मवीर के आरोपों को तभी उचित न्याय भी मिल सकता है। उपरोक्त अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि 'नीची' और 'ऊँची' जातियों की अपनी-अपनी रामभक्तियाँ थी। जो सामाजिक न्याय की माँग करती है। मीरा का काव्य मध्यकालीन समाज में नारी जीवन की और गहरी छानबीन का माँग करता है। सूरदास का काव्य ग्रामीण जीवन में धार्मिक मूल्यों के असर को सही-सही व्याखयायित करने में सहायता करता है। मात्र काव्यात्मक सौन्दर्य की बनी-बनाई परिपाठी इसमें बाधक है, क्योंकि खुद भक्ति काव्य और उसका प्रत्येक कवि समाज और कविता दोनों में किसी काव्यगत और सामाजिक बन्धन को स्वीकार नहीं करता।

भक्तिकाल के सभी कवियों ने सामाजिक और साहित्यिक इतिहास के विभिन्न सोपानों में देश भर में जनता के एकीकरण के लिए जो प्रयास किए, वे भाषायी आधार पर उभर कर आए अलग-अलग प्रान्तों की जनता की एकता के रूप में प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। तत्कालीन मुगल राज्य सत्ता का शोषण मिटाना उनका लक्ष्य था। भक्त या सन्त कवि अपने इस लक्ष्य में अपनी सीमाओं के साथ कामयाब ही कहे जा सकते हैं। १७०७ ई. में मुगल सत्ता का अन्त होता है। इससे पहले पंजाब, महाराष्ट्र आदि स्वतन्त्र राज्यों की घोषणा कर दी जाती है। सामन्तों की भी इसमें अलग-अलग जगहों पर भिन्न तरह की भूमिका थी यह सत्य है, इसलिए रीतिकाल का दौर आता है। परन्तु भक्ति साहित्य ने जनता के निलचे और जुझारू तबके के स्तर पर जो समाज बनाया था, १८५७ के विद्रोह में वह समाज अपनी पूरी एकता के साथ लड़ता दिखाई पड ता है। कहा जा सकता है कि १८५७ के विद्रोह में जो अलग-अलग वर्ग या समूह दिखाई पड ते हैं वैसा ही समाज भक्त कवि बना पाए थे, जो अपने पहले के किसी भी समाज से अपनी सीमाओं के बावजूद निश्चित तौर पर प्रगतिशील था। लेकिन १८५७ के ही विद्रोह के बाद अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने समाज और इतिहास लेखन आदि में जो फूट डाल कर शासन करने की प्रवृत्ति डाली वह हिन्दी आलोचना को भी अपने असर से प्रभावित करती है। आलोचकों की चिन्ता सही होते हुए भी, लक्ष्य अस्पष्ट हो जाते हैं और आज की पूँजीवादी व्यवस्था इसके अन्तर्विरोधों का फायदा उठाती है।


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1. बच्चन सिंह - हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ. १७५
2. वही, पृ. १२६
3. रामचन्द्र शुक्ल - हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ९४
4. मैनेजर पाण्डेय - भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, पृ. २०५
5. वही पृ, २०६
6. मैनेजर पाण्डेय - भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, पृ. ३०४
7. वही, पृ. ३०४
8. बच्चन सिंह - हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ. १२६
9. बच्चन सिंह - हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, पृ. १३८
10. रमेशचन्द्र मिश्र - संत साहित्य और समाज, पृ. १२४.
11. राजदेव सिंह - निर्गुण रामभक्ति और दलित जातियाँ, पृ. ८८
12. राजदेव सिंह - निर्गुण रामभक्ति और दलित जातियाँ, पृ. ८७
13. वही, पृ. २०
14. नामवर सिंह - दूसरी परम्परा की खोज, पृ. ७८
15. वही, पृ. ७९
16. रा.वि. शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन, पृ. ४६
17. रा.वि. शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन, पृ. ४७
18. वही, पृ. ४८
19. रामदेव सिंह - निर्गुण रामभक्ति और दलित जातियाँ, पृ. १०३
20. रामदेव सिंह - निर्गुण रामभक्ति और दलित जातियाँ, पृ. १०४
21. रामदेव सिंह - निर्गुण रामभक्ति और दलित जातियाँ, पृ. ११२
22. वही, पृ. १४५
23. रा.वि.शर्मा - परंपरा का मूल्यांकन, पृ. ४७
24. राजदेव सिंह - निर्गुण रामभक्ति और दलित जातियाँ, पृ. १५०
25. नामवर सिंह - दूसरा परम्परा की खोज, पृ. ८०
26. वही, पृ. ८३
27. राजदेव सिंह - निर्गुण राम भक्ति और दलित जातियाँ, पृ. ९३
28. राजदेव सिंह - निर्गुण राम भक्ति और दलित जातियाँ, पृ. १७
29. निर्गुण रुप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ - मानस, उत्तर-दोहा, दो-९८, चौ.२
30. सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध् वेदा।
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥ मानस, बल, दोहा ११६
31. साखी सबदी दोहरा कहि किहनी उपखान।
भगति निरुपहिं भगत कलि निंदहिं बेद पुरान। - तुलसी दोहावली दोहा ५५४


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डॉ० पूरन चंद से साभार






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