*** कवि भूषण की रचनाधर्मिता

भूषण का केवल रीतिकाल के कवियों में ही नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य के कवियों में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है. राष्ट्रीयता का प्रश्न उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल के कवियों में सिर्फ भूषण के प्रसंग में उठता है, अन्य किसी कवि के प्रसंग में नहीं. अन्य कवि अपने आश्रयदाताओं की विकृत कामभावना को तृप्त या उत्तेजित करने के लिए कविता-कामिनी का श्रृंगार करते थे. लेकिन भूषण ने ऐसे व्यक्ति का आश्रय लिया था जो उस युग में वीरता, जातीय गौरव और प्रतिरोध का प्रतीक था. वे वीर रस की कविता लिखते थे और उन्होंने अपने लिए छत्रसाल और शिवाजी जैसे वीर सामंतों को ही आश्रयदाता के रूप में चुना था. कविता में जिसे रस कहते हैं, वह हृदय में भाव होता है. कवि चाहे अपनी रूचि से, चाहे आश्रयदाता की रूचि से, जिस भाव को अपनाता है, उसकी कविता में उसी भाव की प्रधानता होती है. भूषण की वीर रस की कविता उनके हृदय और उनके युग की प्रवृत्ति का परिचय देती है.

किसी कवि की रचना जनता के द्वारा स्वीकृत होने पर ही काव्यपद पर प्रतिष्ठित होती है. भूषण की रचना भी जनता के हृदय की सम्पत्ति बन गयी, क्योंकि उन्होंने अपने युग में जनता के विशाल भाग की मनोभावनाओं को व्यक्त किया. जनता उनके काव्य में अपने लिए अनुकूल संदेश पाती थी. डा0 मैनेजर पाण्डेय ने इस संबंध में बहुत ठीक लिखा है कि भूषण शिवाजी या छत्रसाल के केवल चारण न थे. सच बात तो यह है कि आज शिवाजी या छत्रसाल की जो छवि लोगों के मन में है उसके निर्माण का काम भूषण के माध्यम से ही हुआ है.

भूषण ने जनता की मनोभावनाओं को व्यक्त करने के साथ इन मनोभावनाओं का निर्माण भी किया. अपने ऐतिहासिक संदर्भ में देशकाल की मर्यादा के भीतर रहकर उन्होंने कविता से ये दोनों काम किए. इसलिए उनकी कविता अमर हुई. उनके द्वारा बनाई गयी शिवाजी और छत्रसाल की छवि उस युग तक सीमित नहीं रही, वह आज भी कारगर है. अपने समाज से सक्रिय और द्वन्द्वात्मक संबंध कायम करके ही कविता स्थायी महत्त्व प्राप्त करती है. जनता को प्रभावित करने की शक्ति उन्हें इसी बात से मिली थी कि उन्होंने एक विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति में जनता की भावनाओं और आकांक्षाओं को वीरत्वपूर्ण ओज के साथ वाणी दी. भूषण की लोकप्रियता का कारण था कि उन्होंने दिल्ली के अत्याचारी शासक के विरूद्ध छत्रसाल और शिवाजी के प्रतिरोध का जो वर्णन किया उसमें अत्याचार से दबी हुई जनता की आकांक्षाओं को भी अभिव्यक्ति मिली है.

शिवाजी या छत्रसाल दिल्ली के मुगल सम्राट से जो युद्ध कर रहे थे, वह हिन्दू-मुसलमान का साम्प्रदायिक युद्ध नहीं था. अपने राज्य और क्षेत्र के लिए दिल्ली सम्राट के विरूद्ध जातीय संग्राम था. यह नयी जातीय चेतना आधुनिक देसी भाषाओं के इर्द-गिर्द उभर रही थी. वह संस्कृति के आधार पर समाज को नया संगठन और नया रूप प्रदान कर रही थी. धर्म उस युग में ऊपरी खोल था. खुद रीतिवादी कवियों में वह “सुमिरन का बहाना” रह गया था. उस समय तक साम्प्रदायिकता की समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी, उसने जातीय अस्मिता को भीतर से विघटित नहीं किया था. यह समस्या अंग्रजी राज में उत्पन्न हुई जब राजनीति के लिए धर्म का इस्तेमाल शुरू हुआ.

भूषण की राष्ट्रीय चेतना में परस्पर विरोधी भावधारा टकराती थीं. एक ओर आश्रयदाता के प्रति मध्ययुगीन श्रद्धा और दूसरी ओर जातीय संघर्ष के प्रति आधुनिक मनोभाव. नि:संदेह आधुनिक मनोभाव दबा हुआ है. उस युग में जातियों का ही नहीं राष्ट्रीयता का भी आधुनिक स्वरूप दबा हुआ था. भूषण की कविता में भी वीरत्वपूर्ण के नीचे दबी हुई यह आधुनिक भावधारा जहाँ तहाँ प्रकट हो जाती है.

भूषण की कविता में चाटुकारिता और अतिशयोक्ति की प्रवृत्ति तो दिखाई देती है, लेकिन श्रृंगार रस की नींव पर वीररस का महल दिखाई नहीं देता. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सही लक्षित किया है कि
शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता....इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिन्दू जनता स्मरण करती है उसी की व्यंजना भूषण ने की है.
शिवाजी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए मुसलमानों के विरूद्ध संघर्ष नहीं कर रहे थे, वे मरोठों की स्वाधीनता के लिए दिल्ली के मुगल सम्राट के विरूद्ध संघर्ष कर रहे थे, और भूषण कविता इस संघर्ष में सारी कल्पना, ऊर्जा भावना के साथ शिवाजी की तरफदारी करती है. यह उनकी राष्ट्रीयता का उज्जवल पक्ष है.

तुलसीदास के लिए राम से अधिक महत्त्व राम के दास का था. यह मानवीय गरिमा भक्ति के प्रसंग से बाहर निकलकर भूषण के यहाँ राष्ट्रीय संदर्भ ग्रहण करती है. शिवाजी के व्यक्तित्व को मठमंदिर से अधिक सबल बताकर, मनुष्य की शक्ति के प्रति यह विश्वास प्राप्त कर भूषण भक्ति साहित्य के मानवतावाद को एक चरण आगे लाते हैं. इतिहास के एक वास्तविक वीर नायक को मठमंदिर से अधिक सबल बता कर जिस मानवतावाद का परिचय देते हैं वह उनकी मध्ययुगीन चेतना के नीचे प्रवाहित होती हुई आधुनिक भावधारा का सूचक है. यह मानवतावाद रीतिवादी कविता के लिए प्राय: दुर्लभ गुण है. धार्मिक आशय वाली भाषा का दबाव एक तरफ, चारण परम्परा वाली भावधारा का दबाव दूसरी तरफ. इन दो मध्यकालीन दबावों के भीतर आधुनिक जातीयता या राष्ट्रीयता का स्वर भूषण की कविता में उभरा है.

रीतिकाव्य राजाओं रईसों के आश्रय में लिखा जाता था. कवि इस बात का ध्यान रखते थे कि उनके आश्रयदाता की रूचि कैसी है. अधिकतर कवि श्रृंगार रस और अतिश्योक्ति अलंकारों के सहारे कविता-कामिनी की साधना करते थे. दरबारी संस्कृति के यही दो प्राणधार और रसाधार थे. इस परिपाटी का असर भूषण पर भी पड़ा, लेकिन वह असर अतिश्योक्ति के रूप में ही है. रस के मामले में भूषण का हृदय मुक्त था. पन्ना नरेश छत्रसाल और मराठा शासक शिवाजी उनके आलंबन थे. भूषण का भावस्रोत शिवाजी के प्रति के विशेष उन्नमुख था. शिवाजी के प्रति भूषण के प्रेम का कारण है स्वतंत्रता और वीरता. भूषण शिवाजी – औरंगज़ेब संघर्ष को धार्मिक या साम्प्रदायिक दंगा मानने या बनाने के बदले उसे स्वाधीनता के लिए होनेवाले युद्ध के रूप में देखते हैं. भूषण रीतिकालीन कवियों में अपनी वीररसपूर्ण वाणी के लिए विशेष स्थान रखते हैं. उनके वीर काव्य का संबंध पौराणिक कथाओं से न होकर ऐतिहासिक कथाओं से है.

“भूषण हजारा”, “भूषण उल्लास” और “दूषण उल्लास” नामक तीन ग्रंथ नहीं मिलते जो इन्हीं के द्वारा रचित माने जाते हैं. तीन ग्रंथ उनके नाम पर उपलब्ध हैं, “शिवराज भूषण”, “शिवाबावनी” और “छत्रसाल दशक”. भूषण के तीनों ग्रंथों में से कोई भी इतिहास की दृष्टि से तथ्यपूर्ण नहीं है. लेकिन ये ग्रंथ काव्यगत कल्पना और उक्तिगत वैचित्र्य से भरे हुए हैं. उनका सबसे प्रमाणिक ग्रंथ “शिवराज भूषण” रीतिकाव्य की परम्परा के अनुसार 1673 ई. में लिखा गया था. यह मूलत: अलंकार ग्रंथ है. इसमें 105 अलंकारों का वर्णन है. रीतिग्रंथों की तरह “शिवराज भूषण” में भी दोहों में अलंकारों के लक्षण बताए गए हैं, फिर कवित्त सवैये में उनके उदाहरण दिए गए हैं. यह ग्रंथ मतिराम के “ललित ललाम” के आधार पर ही तैयार किया गया, लेकिन उनके उदाहरण अपने हैं और ये उदाहरण श्रृंगार रस के न होकर वीर रस के हैं. यह इतना बड़ा अंतर है कि हिन्दी कविता कें भूषण को रीति आचार्य या कवि के रूप में नहीं बल्कि राष्ट्रीयता के उदाहरण के रूप में देखा जाता है.

भूषण की शब्दावली को लेकर अधिकांश आलोचकों को शिकायत है कि उन्होंने ब्रजभाषा के परिनिष्ठित रूप की रक्षा नहीं की. उनकी भाषा का रूप अस्थिर है. लेकिन इसी में भूषण की सजीवता, उनकी भाषा की व्यापकता परिलक्षित होती है. मराठी भाषी क्षेत्र में रहने के नाते मराठी शब्दों का खास तौर से और अन्य प्रांतीय शब्द रूपों का आम तौर से अपनी कविता में भूषण ने ब्रजभाषा के बीच अत्यंत प्रवाहपूर्ण उपयोग किया है. भाषा के गठन पर भी भूषण के समकालीन जीवन की गहरी छाप है.

भूषण का सबसे बड़ा योगदान इस बात में है कि श्रृंगारिकता में डूबे हुए रीतिकाल में उन्होंने वीररस की रचना की जो उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व की घोषणा करती है. उनका ग्रंथ “शिवराज भूषण” हिन्दी का अकेला ऐसा रीतिग्रंथ है जो अलंकार शास्त्र पर होते हुए भी वीररस का काव्य है. दूसरी बात यह है कि हिन्दी में भूषण ने शुद्ध वीर काव्य का सृजन किया. “शुद्ध” इस अर्थ में कि वीरगाथा काल का वीर काव्य श्रृंगार से प्रेरित है, उसमें प्राय: स्त्री के लिए युद्ध हुए हैं. स्वभावत: उसमें राष्ट्रीयता या जातीय भावना का द्योतक सामाजिक वीरता नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत वीरता की प्रमुखता है. इसीलिए न वह समाज की भावना व्यक्त करता है न समाज की चेतना का अंग बनता है. भूषण की सामाजिक या जातीय कल्याण-भावना का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि उनके समय के रीतिकाव्य में सामाजिक भावना का प्राय: अभाव है.

भूषण के महत्त्व का तीसरा पक्ष यह है कि उन्होंने रीतिकाल में वीररस की कविता लिखनेवाले अन्य तीन कवियों- श्रीधर, सूदन, लाल –के अपेक्षा अपनी निजी विशेषताओं और जनता की आकाँक्षाओं के बीच संतुलन कायम किया और कविता की भाव प्रकृति को पहचान कर रचना की. खुद आश्रयदाता के आदेश और वस्तुवर्णन की परिपाटी पर न चलकर भूषण ने अपनी प्रेरणा का आधार ग्रहण किया. उन्होंने कोमल भावों की व्यंजना करने वाली ब्रजभाषा को वीररस के अनुकूल ओजस्वी स्वरूप दिया और अन्य जनपदों एवं भाषाओं से शब्द लेकर उसकी प्रकृति को व्यापक जातीय स्वरूप दिया. यह उनका अप्रतिम योगदान है.

2 comments

Mallinath October 3, 2008 at 12:24 PM

कवि भूषण का काव्य समझने मे थोडी दिक्कत आती है । इसमे प्रयोग मे लाये हुएं शब्द जिस में हो ऐसा शब्द्कोश महाजाल मे हैं? होगा तो बताइये. ।

shubham shree March 24, 2009 at 1:49 PM

aapke aalekh ke liye saadhuvaad.bhusan par samagra roop se saamagri jutaane ka sarahniya prayas hai.