साहित्य का शास्त्र एवं उसकी जरूरत

भाषा के व्याकरण की तरह साहित्य का भी व्याकरण होता है. साहित्य के इस व्याकरण को साहित्यशास्त्र कहते हैं. एक समय संस्कृत में इसे अलंकारशास्त्र और काव्यशास्त्र भी कहते थे. यह बात तब की है जब अलंकार शब्द का अर्थ बहुत व्यापक था और काव्य का भी. अलंकार कहने से उस समय साहित्य के समूचे सौन्दर्य का बोध होता था और काव्य भी गद्य-पद्य सहित सम्पूर्ण साहित्य का पर्याय था. अब अलंकार काव्य के सौन्दर्य का सिर्फ एक प्रकार है और काव्य भी साहित्य के अनेक रूपों में से सिर्फ एक रूप है. इसलिए अब समूचे साहित्य की चर्चा को अलंकारशास्त्र या काव्यशास्त्र कहना ठीक नहीं है. अब तो उसे साहित्यशास्त्र कहना ही ठीक होगा.

यहाँ यह भी ध्यान देना जरूरी है कि व्याकरण से न तो भाषा सीखी जाती है, न साहित्यशास्त्र से साहित्य-सृजन की योग्यता आती है. लेकिन एक समय ऐसा विश्वास अवश्य था. कवियों को शिक्षा देने के लिए भी काव्यशास्त्र के ग्रंथ लिखे गये. लेकिन अब काव्यशास्त्र से ऐसी आशा नहीं की जा सकती. अब जिस तरह व्याकरण भाषा के शुद्ध प्रयोग के लिए उपयोगी माना जाता है उसी तरह साहित्यशास्त्र को साहित्य के बारे में ठीक-ठीक जानकारी के लिए सहायक समझा जाता है. यह जानकारी साहित्य के आस्वाद में साधक होती है.

साहित्यिक कृतियों का स्वाद वैसे तो अपने-अपने ढंग से लोग लेते ही हैं, लेकिन साहित्य गूँगे का गुड़ नहीं है. जब हम कुछ अच्छा पढ़ते हैं तो उसे दूसरे के साथ बाँटना भी चाहते हैं. आपस में बाँटने के लिए उस आनंद का कुछ ब्यौरा देना पड़ता है. हमें यह बताना पड़ता है कि जो अच्छा लगा है वह क्या है और अच्छा है तो क्यों. ऐसे अवसर पर साहित्यशास्त्र हमारी सहायता कर सकता है.

प्रत्येक शास्त्र की तरह साहित्यशास्त्र के भी कुछ अपने पारिभाषिक शब्द हैं. शुरू-शुरू में इन शब्दों से थोड़ा डर लगता है, लेकिन प्रयोग के क्रम में जब उनसे परिचय हो जाता है तो वे बड़े सुविधाजनक साबित होते हैं. परिचय ही प्रेम की जननी है संभवत: इसीलिए कहा जाता है. अनुभव से पारिभाषिक शब्दों की उपयोगिता का विश्वास हो आता है और धीरे-धीरे यह बात समझ में आ जाती है कि बहुत-सी बातें सिर्फ एक छोटे से शब्द के द्वारा सटीक ढंग से कही जा सकती है. ऐसे शब्दों को रटने की जरूरत नहीं है. साहित्य की चर्चा में ऐसे शब्दों से बचना संभव नहीं है.

साहित्य के समान ही साहित्यशास्त्र का विषय भी बहुत बड़ा है और गहन भी. लेकिन सिर्फ इसी वजह से यदि साहित्य पढ़ना नहीं छूटता तो फिर साहित्यशास्त्र से भी परहेज क्यों? समूचा देश न भी देख पायें तो उसका नक्शा तो देख ही सकते हैं. नक्शे का भी अपना मजा है. फिलहाल साहित्यशास्त्र का ऐसा ही नक्शा पेश करने की कोशिश की जा रही है.


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3 comments

अनुनाद सिंह August 9, 2008 at 5:57 PM

आपकी साहित्य पर पक.द को देखते हुए अनुरोध है कि साहित्य सम्बन्धी उपविषयों (टॉपिक्स) पर हिन्दी विकिपीडिया पर लिखें।

हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल हो, इसके लिये उसमें ज्ञान-विज्ञान का होना जरूरी है। और इसके लिये हिन्दी विकिपीडिया एक महान अवसर लेकर उपस्थित हुआ है।

माने August 22, 2016 at 7:18 PM

आदरणीय भास्कर रौशन..यदि आप किसी लेखक या विद्वान की पंक्तियों को उद्धृत करते हैं, तो कृपया पुस्तक के नाम सहित लेखक का भी नाम लिखें. फ़िलहाल इसका लेखक डॉ नित्यानंद तिवारी, पुस्तक का नाम - "साहित्य का शास्त्र: आरंभिक परिचय"

भास्कर रौशन September 2, 2016 at 12:29 AM

उचित सुझाव के लिए धन्यवाद्. जहाँ तक पुस्तक के नाम का ज़िक्र आपने किया इस सिलसिले में पुस्तक के प्रकाशन का वर्ष और नित्यानंद जी के इस लेख के ब्लॉग में प्रकाशन का वर्ष पुनः देखें.